Tuesday, February 10, 2009

"जूता तो खाना ही था..."



गोरखपुर फिल्मोत्सव के तीसरे दिन बाहर के दालान में नज़ारा बहुत चहल-पहल का था। ख़ास वजह थी 'जूता तो खाना ही था...' श्रंखला की कविताओं का प्रदर्शन। इराकी पत्रकार मुंतदार अलजीदी द्वारा अमरीकी तानाशाह जार्ज बुश को जूता मारने की बहादुराना कार्यवाही इन कविताओं का विषय थी। तीसरी दुनिया के मुल्कों में मुंतदार की इसा कार्यवाही को जन-प्रतिरोध के रूपक के रूप में देखा गया। इस विषय को केंद्रित करके 'जूता तो खाना ही था...' शीर्षक समस्यापूर्ति आयोजित की गई थी, जिसके नतीजे में बीसियों कवितायेँ मिलीं। ग़ज़ल, शेर, दोहा, कुंडली, सवैया, जैसे पुराने छंदों के आलावा मुक्त छंद में ढेरों कवितायेँ लिखीं गई। दुर्गा सिंह (चित्रकूट), आलोक श्रीवास्तव (जबलपुर), मृत्युंजय (इलाहाबाद), अवधेश त्रिपाठी (नई दिल्ली), शरद (इलाहाबाद), डा. अजीज़ (गोरखपुर), कपिल (दिल्ली), पंकज चतुर्वेदी (कानपुर), आशुतोष कुमार (अलीगढ़), अष्ठभुजा शुक्ल (बस्ती), मदन चमोली (उत्तराखंड), विवेक निराला (इलाहाबाद), राजेंद्र कुमार (इलाहाबाद) की कवितायें फिल्मोत्सव में प्रर्दशित भी की गयीं।

बुश की तानाशाही को अभिव्यक्त करते हुए दुर्गा सिंह ने लिखा, "मंदी में अब कटी नाक जिसको पहले ही काटना था/ व्हाइट हॉउस से अंकल को एक दिन तो जाना ही था/ हुई ज़रा सी देर मगर जूता तो खाना ही था।" जबलपुर के युवा कवि आलोक श्रीवास्तव ने साम्राज्यवाद की हथियार पसंदगी पर टिप्पणी करते हुए लिखा, "ट्रस्ट जहाँ रह्यो जिससे, जिसने मनुजत्व को खूब सतायो/ जाको सदा हथियार रुच्यो, बम-गोला-बारूद-मिसाइल भायो/ ...धन्य अहो! अखबारनवीस जो जूता को हथियार बनायो।" युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के शब्दों में, "जूता तो खाना ही था/ इनाम तो पाना ही था/ समझे हो इसको स्वागत/ पर यह नज़राना ही था।" मृत्युंजय ने प्रतिरोध के रूपक जूते को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया, "यह जूता है प्रजातंत्र का नया, नवेला चमड़ा/ ठाने बैठा अमरीका से नव प्रतिरोधी रगड़ा/ जाओ लिबर्टी मैया के घर जूता तो खाना ही था।"

युवा कवि विवेक निराला ने साम्राज्यवादी तानाशाही के खिलाफ जूते के प्रतीक के बारे में लिखा, "सुनो हमारे वक़्त के नदिरशाहों/ बादशाहों/ ..की बहुत खामोश मुल्कों की सड़कों पर/ जब कोई नहीं बोलता/ तो सिर्फ़ जूते बोलते हैं।" डा. अज़ीज़ ने इस घटना पर शेर कहा, "सौ जूतों से कम रुतबाय आली नहीं होता/ इज्ज़त वो खजाना है जो खाली नहीं होता।" उत्तराखंड के मदन चमोली ने लिखा, "कसौटी पर खरे उतरे जूते"। दिल्ली के युवा कवि अवधेश ने अपनी लम्बी कविता इराक की जनता को याद करते हुए आलोकधन्वा की कविता 'सफेद रातें' से आगे की बात लिखी, "कवि आलोकधन्वा सुनें/ यह सफ़ेद रात का आखिरी पहर है/ इस सफ़ेद रात में/ काले जूते के कौंधने के बाद/ सिर्फ़ याद में नहीं है बगदाद/ बगदाद, बगदाद में ही है और लड़ रहा है।" वरिष्ठ कवि, आलोचक राजेंद्र कुमार ने तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिरोधी स्वर की शिनाख्त करते हुए लिखा, "जैदी का जूता/ उस खोपडी की तरफ़ चला/ जिसके भीतर निशस्त्रीकरण और विश्वशांति के नकली नोट छापे जाते हैं/ युद्ध की मुहर के साथ."

गोरखपुर के आम जन ने इस अनूठे प्रयोग को खूब सराहा और प्रतिरोध की इस रचनात्मक अभिव्यक्ति को सिनेमा प्रेमी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। लोग खड़े होकर कवितायेँ पढ़ते रहे और अन्दर सिनेमा हाल में भी कविताओं की चर्चा चलती ही रही.

No comments: