Friday, February 13, 2009

चौथा गोरखपुर फ़िल्म उत्सव कैमरे की नज़र से -पोस्ट 3

उद्घाटन सत्र का एक आकर्षण विश्व सिनेमा में चर्चित फिल्मकारों के जीवन-रचना कर्म पर आधारित पुस्तक 'पहली किताब' का विमोचन भी था।
फ़िल्म उत्सव का विशाल बैनर। पूरे उत्सव के दौरान यह विशाल बैनर और परिसर में लगे कविता पोस्टर गोरखपुर के लोगों के भीतर कौतुहल जगाते रहे और उन्हें रुकने पर मजबूर करते रहे.
अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' के प्रदर्शन के बाद दर्शकों से मुखातिब निर्देशक गिब्बी जोबेल.

गिब्बी जोबेल की फ़िल्म 'एम्.एस.टी.' को समारोह में खूब सराहना मिली. यह फ़िल्म प्रदर्शन के बाद ब्राजील की वर्त्तमान स्थिति और राष्ट्रपति लूला के शासन काल पर दर्शकों के बीच चर्चा की शुरुआत का माध्यम बनी.

ब्रितानी निर्देशक गिब्बी जोबेल की ब्राजील के भूमि-सुधार आन्दोलन पर बनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' का एक दृश्य.

Wednesday, February 11, 2009

कैमरे की नज़र से चौथा गोरखपुर फ़िल्म उत्सव.-पोस्ट 2

अरुंधति राय

यह तस्वीर उद्घाटन समारोह की है. अरुंधति राय के वक्तव्य के समय पाँच सौ की संख्या का हॉल खचाखच भरा था और लोग खड़े होकर अरुंधति का विचारोत्तेजक वक्तव्य सुन रहे थे. अरुंधति ने जल्द ही बातचीत को जनता के लिए खोल दिया था और गोरखपुर की जनता ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। तस्वीर में आप एक नौजवान को अरुंधति से अपना सवाल पूछते देख सकते हैं.

ब्रिटिश फिल्मकार गिब्बी जोबेल ब्राजील के कृषि-सुधार आंदोलन पर बनी अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी' के साथ चौथे फ़िल्म उत्सव में मौजूद थे। यहाँ आप 'कहानी के रंगमंच' को नया आयाम देने वाले मशहूर नाटककार देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा गिब्बी जोबेल को समारोह का स्मृति चिह्न भेंट करते देख सकते हैं.

अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' के प्रदर्शन के बाद सवाल-जवाब सत्र में दर्शकों से बात-चीत करते निर्देशक गिब्बी जोबेल.

समारोह में 'विकास बन्दूक की नाल से बहता है' जैसी चर्चित फ़िल्म के निर्देशक मेघनाथ और बीजू टोप्पो दोनों मौजूद थे. यहाँ दर्शकों के सवालों का जवाब देते 'लोहा गरम है' फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद फिल्म के निर्देशक मेघनाथ.

Tuesday, February 10, 2009

कैमरे के झरोखे से चौथा गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल!

सिनेमाकार गिरीश कासरवल्ली से बातचीत में मशगूल (बायें से दाएं) फ़िल्म फेस्टिवल के संयोजक संजय जोशी और फिल्मकार संजय मट्टू एवं अपल.



फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में मंच पर बैठे (बायें से दाएं) संजय काक, अरुंधति राय, रामजी राय, रामकृष्ण मणि त्रिपाठी और गिरीश कासरवल्ली। और समारोह का संचालन करते आशुतोष कुमार. तस्वीर में नीचे आप आगामी फ़िल्म-प्रदर्शन "गुलाबी टाकीज" की तैयारी भी देख सकते हैं. प्रोजेक्टर और साउंड सिस्टम तैयार है!


समारोह की शुरूआती तैयारियां जोरों पर हैं! दीवार पोस्टर तैयार किए जा रहे हैं! कुछ ही देर में समारोह स्थल को बहुविध चमकीले रंगों से पाट दिया जायेगा!

"जूता तो खाना ही था..."



गोरखपुर फिल्मोत्सव के तीसरे दिन बाहर के दालान में नज़ारा बहुत चहल-पहल का था। ख़ास वजह थी 'जूता तो खाना ही था...' श्रंखला की कविताओं का प्रदर्शन। इराकी पत्रकार मुंतदार अलजीदी द्वारा अमरीकी तानाशाह जार्ज बुश को जूता मारने की बहादुराना कार्यवाही इन कविताओं का विषय थी। तीसरी दुनिया के मुल्कों में मुंतदार की इसा कार्यवाही को जन-प्रतिरोध के रूपक के रूप में देखा गया। इस विषय को केंद्रित करके 'जूता तो खाना ही था...' शीर्षक समस्यापूर्ति आयोजित की गई थी, जिसके नतीजे में बीसियों कवितायेँ मिलीं। ग़ज़ल, शेर, दोहा, कुंडली, सवैया, जैसे पुराने छंदों के आलावा मुक्त छंद में ढेरों कवितायेँ लिखीं गई। दुर्गा सिंह (चित्रकूट), आलोक श्रीवास्तव (जबलपुर), मृत्युंजय (इलाहाबाद), अवधेश त्रिपाठी (नई दिल्ली), शरद (इलाहाबाद), डा. अजीज़ (गोरखपुर), कपिल (दिल्ली), पंकज चतुर्वेदी (कानपुर), आशुतोष कुमार (अलीगढ़), अष्ठभुजा शुक्ल (बस्ती), मदन चमोली (उत्तराखंड), विवेक निराला (इलाहाबाद), राजेंद्र कुमार (इलाहाबाद) की कवितायें फिल्मोत्सव में प्रर्दशित भी की गयीं।

बुश की तानाशाही को अभिव्यक्त करते हुए दुर्गा सिंह ने लिखा, "मंदी में अब कटी नाक जिसको पहले ही काटना था/ व्हाइट हॉउस से अंकल को एक दिन तो जाना ही था/ हुई ज़रा सी देर मगर जूता तो खाना ही था।" जबलपुर के युवा कवि आलोक श्रीवास्तव ने साम्राज्यवाद की हथियार पसंदगी पर टिप्पणी करते हुए लिखा, "ट्रस्ट जहाँ रह्यो जिससे, जिसने मनुजत्व को खूब सतायो/ जाको सदा हथियार रुच्यो, बम-गोला-बारूद-मिसाइल भायो/ ...धन्य अहो! अखबारनवीस जो जूता को हथियार बनायो।" युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के शब्दों में, "जूता तो खाना ही था/ इनाम तो पाना ही था/ समझे हो इसको स्वागत/ पर यह नज़राना ही था।" मृत्युंजय ने प्रतिरोध के रूपक जूते को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया, "यह जूता है प्रजातंत्र का नया, नवेला चमड़ा/ ठाने बैठा अमरीका से नव प्रतिरोधी रगड़ा/ जाओ लिबर्टी मैया के घर जूता तो खाना ही था।"

युवा कवि विवेक निराला ने साम्राज्यवादी तानाशाही के खिलाफ जूते के प्रतीक के बारे में लिखा, "सुनो हमारे वक़्त के नदिरशाहों/ बादशाहों/ ..की बहुत खामोश मुल्कों की सड़कों पर/ जब कोई नहीं बोलता/ तो सिर्फ़ जूते बोलते हैं।" डा. अज़ीज़ ने इस घटना पर शेर कहा, "सौ जूतों से कम रुतबाय आली नहीं होता/ इज्ज़त वो खजाना है जो खाली नहीं होता।" उत्तराखंड के मदन चमोली ने लिखा, "कसौटी पर खरे उतरे जूते"। दिल्ली के युवा कवि अवधेश ने अपनी लम्बी कविता इराक की जनता को याद करते हुए आलोकधन्वा की कविता 'सफेद रातें' से आगे की बात लिखी, "कवि आलोकधन्वा सुनें/ यह सफ़ेद रात का आखिरी पहर है/ इस सफ़ेद रात में/ काले जूते के कौंधने के बाद/ सिर्फ़ याद में नहीं है बगदाद/ बगदाद, बगदाद में ही है और लड़ रहा है।" वरिष्ठ कवि, आलोचक राजेंद्र कुमार ने तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिरोधी स्वर की शिनाख्त करते हुए लिखा, "जैदी का जूता/ उस खोपडी की तरफ़ चला/ जिसके भीतर निशस्त्रीकरण और विश्वशांति के नकली नोट छापे जाते हैं/ युद्ध की मुहर के साथ."

गोरखपुर के आम जन ने इस अनूठे प्रयोग को खूब सराहा और प्रतिरोध की इस रचनात्मक अभिव्यक्ति को सिनेमा प्रेमी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। लोग खड़े होकर कवितायेँ पढ़ते रहे और अन्दर सिनेमा हाल में भी कविताओं की चर्चा चलती ही रही.

Saturday, February 7, 2009

सीधी रपट 'गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल' से...

चौथे गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल की शुरुआत.
- साम्राज्यवाद के दलालों की शिनाख्त ज़रूरी: अरुंधति राय.
-वैश्वीकरण और साम्प्रदायिकता के बीच गहरा रिश्ता: अरुंधति राय
- गिरीश कासरवल्ली की नई फ़िल्म 'गुलाबी टाकीज' से समारोह में फ़िल्म-प्रदर्शन की शुरुआत.

गोरखपुर से सीधी रपट. पाँच फरवरी 2009. 'अमरीकी साम्राज्यवाद से मुक्ति के नाम'. जन-संस्कृति मंच और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी 'एक्सप्रेशन' की ओर से गोकुल अतिथि भवन में आयोजित चौथे गोरखपुर फ़िल्म उत्सव की आज रंगारंग शुरुआत हुई. इस चार दिवसीय फ़िल्म उत्सव का उद्घाटन अमेरीकी साम्राज्यवाद की मुखर विरोधी रही चर्चित लेखिका अरुंधति राय ने किया. राय ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में साम्राज्यवाद के नए रूपों की पहचान की जरूरत को रेखांकित किया. उन्होनें कहा कि आज के समय में लगता है साम्राज्यवाद का अमेरिकी मॉडल हार रहा है. ओबामा अमेरिकी साम्राज्यवाद के जहाज़ को इमरजेंसी लेंडिंग कराने वाले पायलेट की भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन इस वक़्त साम्राज्यवाद के नए रूपों की शिनाख्त और ज़रूरी हो जाती है. हमें देखना होगा कि इसबार वो कहाँ से, किसका चेहरा धरकर हमारे सामने आता है. बहुत ज़रूरी है कि हम उन छोटी-छोटी लडाइयों को पहचानें जिनका संघर्ष अपने स्तर पर साम्राज्यवाद का मुकाबला कर रहा है. अरुंधति ने नरेन्द्र मोदी और रतन टाटा के हालिया गठबंधन का ज़िक्र करते हुए कहा कि पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता का यह रिश्ता बहुत पुराना है. नब्बे के दशक की शुरुआत में हिन्दुस्तान में इन दोनों का प्रभाव एकसाथ बढ़ा है और इन दोनों प्रक्रियाओं का आपस में सम्बन्ध बहुत गहरा है. आज मोदी रतन टाटा को तो मुफ्त बिजली, पानी और लाखों रूपये दे रहे हैं लेकिन गरीब किसान के लिए एक लाख रूपये का क़र्ज़ भी बारह प्रतिशत की ब्याज दर पर है. साफ़ है कि सरकार किसका हित देखती है।

इस अवसर पर गिरीश कासरवल्ली ने आज के समय में सार्थक सिनेमा की जरूरत को और ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बताया और कहा कि इस तरह के सिनेमा को आम जनता ही आगे बढ़ाएगी, सरकार और व्यवस्था के अंग नहीं। उनकी फ़िल्म 'गुलाबी टाकीज' प्रदर्शन समारोह का मुख्य आकर्षण थी. इस मौके पर फिल्मकार संजय काक ने चौथे फ़िल्म समारोह की स्मारिका का लोकार्पण किया।

चौथे गोरखपुर फ़िल्म उत्सव की आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने स्वागत वक्तव्य में साम्राज्यवाद विरोध को और नई ऊँचाई तक ले जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. संचालन जसम उत्तर प्रदेश के सचिव, युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने किया। सत्र के अध्यक्ष मार्क्सवादी विचारक और समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने हाल में फिलिस्तीनी जनता पर इजरायल द्वारा किए गए बर्बर हमले का ज़िक्र करते हुए कहा कि साम्राज्यवाद ने किस तरह की त्रासदी और राजनीतिक समस्यायों को पैदा किया, फिलिस्तीन इसका उदाहरण है. इजरायली बर्बरता को अमरीकी साम्राज्यवाद ही खुलकर शह देता रहा है. उन्होंने कहा कि अमरीका में ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने से ही उसकी नीतियों में बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. फिलिस्तीन, इराक, अफगानिस्तान, हर जगह अमरीका के आतंकी- विध्वंसक कारवाइयों के ख़िलाफ़ विश्व-जनमत एकजुट होकर मुखर हो रहा है।

आयोजन स्थल पर लेनिन पुस्तक केन्द्र, बिस्मिल पुस्तक केन्द्र, संवाद और समकालीन जनमत की ओर से बुक स्टाल लगाया गया है. 'एक्सप्रेशन' गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी द्वारा लगाए गए फ़िल्म और जनगीतों के बिक्री केन्द्र पर भी खूब भीड़ जुटी और लोगों ने बढ़-चढ़कर फिल्मों, आन्दोलन से जुड़े गीतों की सी.डी. और पोस्टर्स की खरीददारी की.

Sunday, February 1, 2009

Road to the 4th gorakhpur film festival.

Dear friends,

4th Gorakhpur film festival is now just four days away. This time we are having a four day festival (5th to 8th February) on the theme of resistance against the new forms of imperialism or as we call it, American imperialism.
We are talking to filmmakers on this common issue. On political cinema. On questions like what is political for them? What is this debate about ‘clean money’ in political documentary filmmaking? How important is distribution for an independent documentary filmmaker?

This time noted documentary filmmaker Paromita Wohra is answering the question, “What is political” and with that talking with us on her films and how 'personal' and 'political' are interconnected.

"It is in
middles that extremes clash, where ambiguity restlessly rules." and from the exploration of that space arise the suggestions of change.


Paromita vohra:~ For me, the political is anything that deals with power and how it is used - it could be the power of the state, the power of movements, the power of language to shape our ideas and thence our lives. Anything that chooses to intervene in this constant flow of power between human beings, genders, organisations, state formation becomes political.

Yes I don't feel there's any ambiguity in the fact that my films are political.I've a great interest in the power of ideas, of discourse to shape the course of events and actions and my films are engaged with the enterprise of re-engaging urban people in the political discussion at a philosophical, rather than an advocacy level. I also feel that the notion that the political is fixed - that there is only one way in which you can be politically engaged ( a sort of broadly connecting to or replicating movement politics and speaking of politics connected to the state) is one of the reasons people easily disconnect from political responsibility and ethics in their lives. So I'm also very interested in overturning this canon of political topics and the rigidity of what we understand to be political; in emphasising that each of our actions and decisions are part of that political flow and asking for a more reflective politics and from there, a more creative political action, perhaps.

The complex relationship between the personal and the political must necessarily be explored and examined constantly in order to present politics as something meaningful and something that each of us is concerned with.

I also think that when we think of intervening in the political enterprise of democracy - then films which work by the logic of proof or evidence of injustice rely on a functioning system of delivering justice. When this does not exist, the documentary cannot confine itself to this idea of exposing injustice alone. It needs to reinvigorate the political discussion, provide an experience of diversity, insist on the presence of multiple viewpoints in order to be politically meaningful.

But I also have to say that for me my films work by the politics of what is not being spoken of - and in the broader discussions of progressive politics, the politics of language don't much get discussed. Eventually it is not what we say, but how we say it that determines the meanings people make. The unwillingness to look at these nuances of power is something that seriously compromises progressive politics. So to an extent I try in my films to constantly bring up that interplay between content and form, between the said and the implied - not only in relation to what the film is about, but in relation to what I see being discussed in the general arena of progressive politics.


All the films don't speak of personal life though - but anyway this very masculinist distinction that personal life is not important is something I find laughable. I think it's very possible, while speaking of personal things and intimate issues to show how they are influenced by and also influence the larger equations of class, caste, gender that drive power.


And because it is about this interplay, the films often have a playful form, a hopscotch feel between different registers.