Saturday, November 14, 2009

नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के बहाने


लंबे अरसे से सोचता था कि नैनीताल में कोई फिल्म फेस्टिवल किया जाए. दोस्तों के साथ मिलकर योजना बनाने की कोशिश भी की. लेकिन कभी कुछ तय नहीं हो पाया. इस बार पता चला कि अपने ही कुछ पुराने साथी वहां पर फिल्म फेस्टिवल की तैयारी कर रहे हैं तो मैं भी साथ में जुट गया. फेस्टिवल क़रीब आने पर दोस्तों से मिलने की ख़्वाहिश लिए मैं दिल्ली से नैनीताल के लिए निकल पड़ा. हमें उत्तराखंड संपर्क क्रांति से हल्द्वानी तक जाना था. साथ में भारत भी था. शाम चार बजे की ट्रेन थी लेकिन हम तीन बजे ही स्टेशन पहुंच गए. ऐसा बहुत कम हुआ है कि संपर्क क्रांति वक़्त पर चले. यही सोचकर पिछले महीने जब हल्द्वानी जाने के लिए स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. तबीयत कुछ ख़राब थी. ऐसे में शारीरिक थकान तो थी ही मानसिक तौर पर भी बड़ी मुश्किल हुई. उस दिन टिकट कैंसल कर दूसरे दिन ट्रेन पकड़ी थी. इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि निर्धारित वक़्त से पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएंगे. नतीज़ा ये हुआ कि पूरे एक घंटे प्लेटफ़ार्म पर इंतज़ार करना पड़ा.

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह से काठगोदाम के लिए ट्रेन चली तो रिजर्व्ड डिब्बों में भी लोग ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे. कुछ सोते, कुछ जागते और कुछ पढ़ते रात के ग्यारह बजे हल्द्वानी पहुंचे. ट्रेन एक घंटा लेट थी. किसी रिश्तेदार के घर जाने की बजाय पुराने दोस्त और पत्रकार जहांगीर के पास जाना मुझे ज़्यादा ठीक लगा. वहां पहुंचा तो वो अतीत की बातें करता रहा. कुछ दोस्तों के फोन नंबर उसके पास थे. उनसे बात करवाता रहा. इस बीच भरी जवानी में साथ छोड़ चुके दोस्तों को भी हम याद करते रहे. कभी जो गहरे दोस्त थे और अब अजनबी बन चुके हैं ऐसे रिश्तों की बातें भी बीच में आईं. हम सोचते रहे कि छोटे से वक़्त में कितना कुछ बदल गया है.

सुबह जहांगीर अपनी गाड़ी से टैक्सी स्टैंड तक छोड़कर गया. शेयर्ड टैक्सी जैसे ही काठगोदाम से ऊपर की ओर चली अगली सीट पर बैठा मैं बाक़ी सवारियों से बेख़बर पहाड़ों को गौर से देख रहा था. हवा, पानी, पेड़, पत्थर, ज़मीन सब जाने-पहचाने लग रहे थे. मैं पुराने दिनों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था. अचानक लगा कि दिल्ली में रहते मैं इस मिट्टी की गंध से कितना दूर हो गया हूं. नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मुझ जैसे लोगों को स्वर्ग से ठुकराए हुए लोग यूं ही नहीं कहते. ख़ैर, आधे रास्ते में पता चला कि पिछली सीट में विवेक दा भी बैठे हैं. वो कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता हैं. पिछले कई सालों से दिल्ली में थे अब उत्तराखंड में पार्टी का काम देखते हैं. उन्होंने ही पहचानते हुए पीछे से मेरा नाम पुकारा. मिलकर अच्छा लगा. फिर रास्ते में वो उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों की लूट की कहानी बताते रहे. ज़ोर देते रहे कि मैं इस बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. उन्होंने ये भी बताया कि कैसे पूरे राज्य में माओवाद का हौव्वा खड़ा कर आंदोलनकारियों पर लगाम कसी जा रही है. पिछले साल पीयूसीएल और पीयूडीआर की तरफ़ से उत्तराखंड आयी फैक्ट फाइंडिंग कमेटी में मैं भी शामिल था. इसलिए मुझे उनकी इस बात की गंभीरता पता थी. हम लोग प्रभाष जोशी की मौत और आज की बाज़ारू पत्रकारिता पर भी बात करते रहे.

नैनीताल मुझे हमेशा से लुभाता रहा है. लेकिन इस बार जब वहां पहुंचा तो लगा कि शहर का रंग उड़ा हुआ है. ये बात मैंने विवेक दा से पूछी. उन्होंने याद दिलाया कि पतझड़ का महीना है. लेकिन मैं सोचता रहा कि आसपास सदाबहार जंगल होने के बाद भी शहर में पतझड़ का इतना असर क्यों है. शायद बाहर से लाकर ज़बरदस्ती यहां लगाए गए पेड़ों की वजह से ऐसा था. पूरे माहौल में मुझे एक नकलीपन जैसा लगा. हम तल्लीताल से रिक्शे पर मल्लीताल के लिए निकले. मुझे अतीत में यहां बिताए दिन याद आते रहे. मॉल रोड से गुजरते हुए मैं हर आदमी और दृश्य को पहचानने की कोशिश कर रहा था. लेकिन सैलानी जोड़ों और दुकानों की चमक-दमक के बीच अपना जैसा कुछ भी नहीं लगा.

शैले हॉल में पहले नैनीताल फिल्म फेस्टिवल की गहमा-गहमी थी. शहर में घुसते ही जो वीराना और अजनबीपन लगा था. यहां आकर वो पूरी तरह दूर गया. एक साथ ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मिले. जिनसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी ऐसे साथियों से मिलने का सुख बयान नहीं किया जा सकता. तब लगा नहीं कि वक़्त ने हम सबको एक-दूसरे से कितना दूर कर दिया है. स्कूली दिनों का साथी प्रकाश इतने सालों बाद अचानक मिल गया. उसने बताया कि आजकल वो कहीं एसडीएम है.

ज़िंदगी के अलग-अलग इलाक़ों से लोग यहां पहुंचे थे. कोई आंदोलनों में सक्रिय था तो कोई रंगमंच में, कोई साहित्य में तो कोई सिनेमा में. सब से कोई न कोई पुराना रिश्ता. वे पूरी आत्मीयता से अपने-अपने विषय की बात बताते रहे. आंदोलन वाले मुझसे आंदोलनकारी की तरह बोल रहे थे तो रंगमंच वाले रंगकर्मी की तरह. साहित्य वाले और सिनेमा वालों का भी यही अंदाज़ था. मुझे लगा कि हर रास्ते में चलने की कोशिश में मैं उलझकर रह गया. मुझसे अच्छे तो वो साथी है जिन्होंने गंभीरता से कोई काम किया.

वीरेनदा हमेशा की तरह हुलसकर गले मिले. तो त्रिनेत्र जोशी ने भी सदाबहार मुस्कान के साथ स्वागत किया. इलाहाबाद से प्रणय कृष्ण, कानपुर से पंकज चतुर्वेदी और दिल्ली से अजय भारद्वाज चंद्रशेखर पर बनाई फिल्म एक मिनट का मौन के साथ पहुंचे थे. ज़हूर दा में आज भी वही पुरानी सक्रियता दिख रही थी. शेखर पाठक दोनों दिन डटे रहे. उन्होंने बताया कि वो इन दिनों हिमालयी इलाक़ों में औपनिवेशिक घुसपैठ के ऐतिहासिक अध्ययन को पूरा करने में जुटे हैं. इसके लिए उन्होंने फिर से पूरे हिमालयी इलाक़ों की खाक छान मारी है. बटरोही और गिर्दा भी प्यार से मिले. राजा बहुगुणा, गिरिजा पाठक, कैलाश, केके से मिलकर भी अच्छा लगा. त्रिभुवन फर्त्याल और अनिल रजबार भी बीच-बीच में चेहरा दिखाते रहे. गिरिजा पांडे, प्रदीप पांडे और हरीश पंत भी आते-जाते रहे. गढ़वाल से आए मदन मोहन चमोली अपने फकीरी ठाठ में दिखे. और भी ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मौजूद थे. पिछले अस्कोट-आराकोट अभियान के अमेरिकी साथी डेन डेंटजन और फ्रांस की पेंटर और फिल्ममेकर कैथरीन से भी मिलकर अच्छा लगा. फेस्टिवल की रीढ़ और फिल्म मेकर संजय जोशी हर वक़्त सही स्क्रीनिंग की व्यवस्था करने में जुटे नज़र आए.

दोनों दिन पूरी गहमा-गहमी रही. फेस्टिवल की ज़्यादातर फिल्में पहले से देखी हुई थीं. इसलिए मैं कभी फिल्म देखता रहा तो कभी हॉल के बाहर दोस्तों से बात करता रहा. वहां चार्ली चैप्लिन की मॉडर्न टाइम्स, वित्तोरियो दे सिका की बाइसिकल थीव्स, माजिद मजीदी की चिल्ड्रन ऑफ़ हैवन और एमएस सथ्यू की गर्म हवा जैसी फिल्में दिखाई गईं. इनके अलावा नेत्र सिंह रावत की माघ मेला और एनएस थापा की एवरेस्ट भी दिखाई गई. प्रतिरोध के सिनेमा का ये पहला फेस्टिवल भी इन्हीं को समर्पित था. इनके अलावा और भी कई डॉक्यूमेंटरीज वहां दिखाई गईं. हैरत की बात ये थी कि फेस्टिवल के दौरान वहां लगातार ख़ुफिया विभाग वाले अड्डा ज़माए रहे. पता चला कि पहले दिन दैनिक जागरण ने छापा था कि फेस्टिवल की आड़ में नैनीताल में नक्सली जुटने जा रहे हैं. इसलिए इंटैलीजेंस वालों के वीडियो कैमरों की नज़र हम पर लगातार लगी रही.

फेस्टिवल फिल्मों के अलावा भी बहुत कुछ था. वहां अवस्थी मास्साब के बनाए पोस्टरों के डॉक्यूमेंटेशन को देखना एक अद्बुत अनुभव था. मास्साब अब दुनिया में नहीं है. वो अपने हाथों से जनआंदोलनों के पक्ष में और सामाजिक विरूपताओं पर चोट करने वाले पोस्टर बनाते थे और उन्हें गले में आगे-पीछे लटका कर शहर में घूमते थे. नैनीताल के लोग इस अद्भुत व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं पाएंगे. जब नैनीताल में था तो ज़हूर दा के इंतख़ाब में उनसे अक्सर मुलाक़ात होती थी. विनीता यशस्वी ने उनके पोस्टरों को सहेज कर बहुत बड़ा काम किया है. इस मौक़े पर बीरेन डंगवाल के कविता संग्रह स्याही ताल और दिवाकर भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आधारशिला के त्रिलोचन विशेषांक का भी विमोचन हुआ.

फेस्टिवल का सबसे यादगार और महत्वपूर्ण अनुभव रहा भारतीय चित्रकला पर अशोक भौमिक का प्रभावशाली व्याख्यान. सालों से सोचता रहा हूं कि जिसकी पेंटिंग्स जितनी महंगी बिकती हैं वो उतना बड़ा कलाकार कैसे मान लिया जाता है. अशोक दा की बातों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल गया. उन्होंने रज़ा, सूजा और हुसैन के मुक़ाबले चित्त प्रसाद, जैनुअल आबीदीन और सोमनाथ होड़ की जनपक्षधर कला से रू-ब-रू कराया. थैंक्यू अशोक दा! फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही शहर में सरकारी शरदोत्सव भी चल रहा था. वहां दिखाए जा रहे बाज़ारू कार्यक्रमों की वजह से ज़्यादातर साथी नाराज़ दिखे.

नैनीताल में शाम होते-होते पड़ने वाली हाड़ कंपा देने वाली ठंड का भी अपना ही एडवेंचर था. कुंडल ने ठंड भगाने की कुछ व्यवस्था तो की लेकिन सबकी ठंड दूर कर पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए शायद बाहर से आए कुछ साथी निराश भी हुए. रात हमने अभिनेता इदरीश मलिक के होटल में बिताई. आजकल वो पारिवारिक वजहों से शहर में ही रहते हैं. फेस्टिवल के दौरान उनसे मुलाक़ात हो चुकी थी. हां, टीवी कलाकार हेमंत पांडे से भी मिला था. मैंने हैलो किया तो भाई की नज़र हवा में टिक गई. मैं समझ नहीं पाया कि मुझे सचमुछ नहीं पहचाना गया या बात कुछ और थी.

इतनी जल्दी शहर छोड़ने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं थी लेकिन जल्दी लौटने की मज़बूरी थी. सुबह साढ़े पांच बजे जागकर हमने होटल छोड़ दिया. सुबह मैं और भारत वॉक करते हुए मल्लीताल से तल्लीताल पहुंचे. नैना देवी के मंदिर में घंटियां बज रही थीं, मैंने घंटियों की आवाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो उसने जोड़ा कि इससे पहले आरती और अजान भी सुनाई दे रहे थे. न जाने क्यों नास्तिक होने के बाद भी मुझे आरती और अजान में एक अद्भुत क़िस्म के संगीत का अहसास होता है. वो मेरे लिए म्यूजिक विद्आउट लिरिक जैसा कुछ है. पौ फट चुकी थी. धीरे-धीरे अंधेरा छंट रहा था. तल्लीताल कोर्ट के आसपास के भवन चांदी की तरह चमक रहे थे. ठंडी सड़क की तरफ़ अब भी अंधेरा था. झील में रोशनियों के प्रतिबिम्ब धीरे-धीरे तैरते हुए ख़त्म हो रहे थे. अंग्रेजों के बनाए गोथिक स्टाइल के आर्किटेक्चर में नैनीताल बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था.

वो नौ नवंबर का दिन था. यानी उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस. तल्लीताल पहुंचने पर देखा कि उमा भट्ट की अगुवाई में महिला मंच की कार्यकर्ता बसों में भरकर गैरसैंण जा रही थीं. राज्य बनने के नौ साल बीत जाने के बाद भी लोग पहाड़ में राजधानी पाने के लिए लड़ रहे थे. सत्ताधारियों को जनता की ये मांग बेवकूफी लगती है. पहाड़ मुझे वहीं नज़र आया. जहां मैंने सालों पहले छोड़ा था. आंदोलन अब भी जारी हैं और प्रतिरोध की कलाएं उनके साथ खड़ी हैं. नैनीताल के लौटते वक़्त बस की अगली सीट पर बैठे मैंने देखा कि कहीं दूर नेपाल की पहाड़ियों में उग रहे लाल सूरज की किरणें यात्रियों की आंखों को चुंधिया रही थीं. हर मोड पर ये रोशनी और ज़्यादा तेज़ महसूस हो रही थी. ताज्जुब की बात ये कि मैंने आज तक पहाड़ी सफ़र में कभी इस तरह का सूरज नहीं देखा था. बस पटवाडांगर, ज्योलीकोट होते हुए आगे बढ़ रही थी. पतझड़ पीछे छूट चुका था. चारों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे. भावर की ढलान के बाद आगे मैदान शुरू होने थे. फिर एक दूसरे भूगोल में आना था.

-- भूपेन. ’कबाड़खाना’ से साभार.

Thursday, November 12, 2009

नैनीताल का पहला फ़िल्म उत्सव




7-8 नवम्बर 2009 को नैनीताल में पहले फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। नैनीताल में यह अपनी तरह का पहला आयोजन था जिसे एन.एस. थापा और नेत्र सिंह रावत को समर्पित किया गया था। इस फिल्म उत्सव का नाम रखा गया था `प्रतिरोध का सिनेमा´। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को उन संघषों से रु-ब-रु करवाना था जो कि कमर्शियल फिल्मों के चलते आम जन तक नहीं पहुंच पाती हैं। युगमंच नैनीताल एवं जन संस्कृति मंच के सहयोग से इस फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया।

आयोजन का उद्घाटन युगमंच व जसम के कलाकारों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करके की गयी। इसी सत्र में फिल्म समारोह स्मारिका का विमोचन भी किया गया और प्रणय कृष्ण, गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ एवं इस आयोजन के समन्वयक संजय जोशी ने सभा को संबोधित किया। इसके बाद आयोजन की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू निर्देशित `गरम हवा´ दिखायी गयी। बंटवारे पर आधारित यह फिल्म दर्शकों द्वारा काफी सराही गयी

सायंकालीन सत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह `स्याही ताल´ का विमोचन किया गया तथा गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ और विश्वम्भर नाथ सखा को सम्मानित किया गया। इस दौरान `आधारशिला´ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। इसके बाद राजीव कुमार निर्देशित 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री `आखिरी आसमान´ का प्रदर्शन किया गया जो कि बंटवारे के दर्द को बयां करती है। उसके बाद अजय भारद्वाज की जे.एन.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर पर केन्द्रत फिल्म `1 मिनट का मौन´ तथा चार्ली चैिप्लन की फिल्म `मॉर्डन टाइम्स´ दिखायी गयी। इस फिल्म के साथ पहले दिन के कार्यक्रम समाप्त हो गये।

दूसरे दिन के कार्यक्रमों की शुरूआत सुबह 9.30 बजे बच्चों के सत्र से हुई। इस दौरान `हिप-हिप हुर्रे´, `ओपन अ डोर´ और `चिल्ड्रन ऑफ हैवन´ जैसी बेहतरीन फिल्में दिखायी गयी। बाल सत्र के दौरान बच्चों की काफी संख्या मौजूद रही और बच्चों ने इन फिल्मों का खूब मजा लिया।

दोपहर के सत्र की शुरूआत में नेत्र सिंह रावत निर्देशित फिल्म `माघ मेला´ से हुई और इसके बाद एन.एस. थापा द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म `एवरेस्ट´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 1964 में भारतीय दल द्वारा पहली बार एवरेस्ट को फतह करने पर बनायी गयी है। यह पहली बार ही हुआ था कि एक ही दल के सात सदस्यों ने एवरेस्ट को फतह करने में कामयाबी हासिल की थी। निर्देशक एन.एस. थापा स्वयं भी इस दल के सदस्य थे। इस फिल्म को दर्शकों से काफी प्रशंसा मिली। इस के बाद विनोद राजा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री `महुवा मेमोआर्ज´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 2002-06 तक उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में किये जा रहे खनन पर आधारित है जिसके कारण वहां के आदिवासियों को अपनी पुरखों की जमीनों को छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह फिल्म आदिवासियों के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही।

सायंकालीन सत्र में अशोक भौमिक द्वारा समकालीन भारतीय चित्रकला पर व्याख्यान दिया गया और एक स्लाइड शो भी दिखाया गया तथा कवि विरेन डंगवाल जी का सम्मान किया गया। इस उत्सव की अंतिम फिल्म थी विट्टोरियो डी सिल्वा निर्देशित इतालवी फिल्म `बाइसकिल थीफ´। उत्सव का समापन भी युगमंच और जसम के कलाकारों की प्रस्तुति के साथ ही हुआ।

समारोह के दौरान अवस्थी मास्साब के पोस्टरों और चित्तप्रसाद के रेखाचित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसे काफी सराहना मिली।

विनीता यशस्वी के ब्लॉग "यशस्वी" से साभार

Monday, November 2, 2009

दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह : दमन के विरुद्ध एक सांस्कृतिक पहल




· ’दम, प्रतिरोध और सिनेमा’ की थीम पर दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह 11 से 13

सितम्बर को लखन की संगीत नाट अकादमी की वाल्मिकी रंगशाला में सम्पन्न. समारोह का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्मकार आंनद पटवर्धन द्वारा.


· युवा फ़िल्मकार अधिक से अधिक वृत्तचित्र बनाएं. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे रचनाकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहिये : विष्णु खरे


· जंग और अमन, राम के नाम, परज़ानिया, ख्याल दर्पण, द अदर साँग, बायसिकल थीफ़, ब्लड एन्ड ऑयल, नियमराजा का शोकगीत, नोलिया शाही, अशेन लाइफ़, जैसा बोओगे वैसा काटोगे जैसी फ़िल्मों के साथ हिरावल के गीतों की गूँज.


लखनऊ में आयोजित होने वाला यह दूसरा फ़िल्म महोत्सव था और स्वाभाविक था कि इस बार इसके लिए उत्सुक़्ता और उम्मीद दोनों ही ज़्यादा थी. 11 से 13 सितम्बर 2009 को आयोजित हुए इस फ़िल्म महोत्सव का मुख्य थीम ’दमन, प्रतिरोध और सिनेमा’ था. इस बार का फ़िल्म उत्सव प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक तपन सिन्हा, पाकिस्तान की लोकप्रिय गायिका इक़बाल बानो और प्रसिद्ध रंग निर्देशक हबीब तनवीर को समर्पित था.

तीन दिन तक चलने वाले इस समारोह में जहाँ एक दर्जन से ज़्यादा फ़ीचर और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में दिखाई गईं वहीं फ़िल्म, कला और साहित्य से जुड़े संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध के सिनेमा और संस्कृति के वैचारिक पहलुओं और व्यव्हारिक पक्षों पर चर्चा की. जसम के फ़िल्म समूह ’द ग्रुप’ के संयोजक, युवा फ़िल्मकार संजय जोशी का कहना था कि ’प्रतिरोध का सिनेमा’ कोई उत्सव नहीं बल्कि जनता का सांस्कृतिक आन्दोलन है और एक सपने के सच होने की शुरुआत है. यह आन्दोलन बिना कर्पोरेट, एन.जी.ओ., सरकारी स्पॉन्सरशिप के जनता की शक्तियों पर निर्भर होकर चलाया जा रहा है. अब तक नौ फ़िल्म उत्सव इस क्रम में जसम की ओर से आयोजित हो चुके हैं.

फ़िल्मोत्सव का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक आनन्द पटवर्धन ने किया. उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता थे हिन्दी के वरिष्ठ कवि और सिनेमा आलोचक विष्णु खरे. उन्होंने अपने उद्घाटन वक्तव्य में यह मुद्दा उठाया कि दमन का प्रतिरोध करने वालों को हमेशा ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. लोग विरोध करना चाहते हैं. उनके पास मुद्दे हैं, समझ भी है लेकिन उसे फ़िल्माने के लिए साधन नहीं हैं. हमारे पास ऐसा आर्थिकतंत्र नहीं है जिससे हम प्रतिरोध का सिनेमा बना सकें. राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम जैसी संस्थाएं सत्ता के कब्ज़े में हैं. उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती. इस हालत में ज़रूरी है कि युवा फ़िल्मकार ज़्यादा से ज़्यादा वृत्त चित्र बनाएं. स्कूल-कॉलेज के बच्चे आगे आएं और जन समस्याओं को लेकर फ़िल्में बनाएं और प्रोजेक्टर से फ़िल्में दिखाएं. दलित सिनेमा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे साहित्यकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहियें. प्रतिरोध का सिनेमा इसी रास्ते से आगे बढ़ सकता है. उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और कवि व फ़िल्म समीक्षक अजय कुमार ने की.

फ़िल्म समारोह की शुरुआत अपने जनगीतों और प्रयोगधर्मी नाटकों के लिए मशहूर हिरावल, पटना की गायन से हुई. इस अवसर पर हिरावल ने फ़ैज़ की नज़्म “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे”, दिनेश कुमार शुक्ल की कविता “जाग मेरे मन मछन्दर” तथा वीरेन डंगवाल की कविता “हमारा समाज” की संगीतमय प्रस्तुति दी. हिरावल के गीतों और कविताओं का विस्तार के पी ससि के म्यूज़िक वीडियो “गाँव छोड़ब नाहिं” में देखने को मिला जो विकास के नाम पर विस्थापित किए जा रहे आदिवासियों के प्रतिरोध को स्वर देता है.

लखनऊ फ़िल्मोत्सव में आनंद पटवर्धन की दो मशहूर फ़िल्में “राम के नाम” तथा “जंग और अमन” दिखाई गईं. इनका परिचय अजय कुमार ने दिया. उन्होंने कहा कि आनंद पटवर्धन न सिर्फ़ हमारे समय के विशिष्ठ फ़िल्मकार हैं बल्कि सिद्धान्तकार भी हैं. पटवर्धन ने ही मुम्बईया सिनेमा के सामने गुरिल्ला सिनेमा जैसा कॉन्सेप्ट रखा. “जंग और अमन” में पटवर्धन निर्लज्ज सैन्यवाद की ओर भारतीय उपमहाद्वीप की दौड़, युद्धोन्माद और परमाणु हथियारों की होड़ को बड़ी पीड़ा के साथ रेखांकित करते हैं और साथ ही इनके खिलाफ़ हो रहे प्रतिरोध को भी दिखाते हैं. आनन्द पटवर्धन की दूसरी फ़िल्म “राम के नाम” बाबरी मस्जिद विध्वंस की तपिश को महसूस करती फ़िल्म है. दोनों फ़िल्मों के बाद आनन्द पटवर्धन ने दर्शकों से बात की और उनके सवालों का जवाब दिया.

साम्प्रदायिक हिंसा के जिस तपिश का अहसास आनन्द पटवर्धन की फ़िल्में कराती हैं उसी का विस्तार राहुल ढोलकिया की “परज़ानिया” में दिखता है. यह फ़िल्म गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए अल्पसंखयकों पर हमलों की दुखद दास्तान बयाँ करती है. यूसुफ़ सईद की “खयाल दर्पण” पाकिस्तान में प्रवाहित होती शास्त्रीय संगीत की यात्रा का चित्रण है. यह फ़िल्म भारत और पाकिस्तान के बीच सांस्कृतिक एकता की जड़े तलाशती हुई अच्छे रिश्तों की उम्मीद जगाती है. सबा दीवान की फ़िल्म “द अदर साँग” बनारस की मशहूर गायिका रसूलन बाई के लुप्त गीत की खोज के ज़रिए उनकी और उन जैसी तवायफ़ों के जीवन के तमाम पहलुओं को सामने लाती है. इन फ़िल्मों का परिचय जाने-माने नाटककार राजेश कुमार तथा संजय जोशी ने दिया.

लखनऊ फ़िल्म समारोह में विक्टोरिया डि सिका की मशहूर फ़िल्म “बाएसिकल थीफ़” भी दिखाई गई. इस क्लासिक फ़िल्म का परिचय विष्णु खरे ने दिया. यह फ़िल्म दूसरे विश्व युद्ध के बाद के रोम की कहानी कहती है और गरीबों का दर्द बयाँ करती है. सिनेमा की दुनिया में “बायसिकल थीफ़” कालजयी फ़िल्म है. इस फ़िल्म ने दुनिया भर के सिनेमा निर्देशकों को प्रभावित किया जिनमें हिन्दुस्तान के बिमल राय तथा सत्यजित राय भी शामिल हैं. इसके बाद जर्नलिस्ट माइकल टी क्लेयर की फ़िल्म “ब्लड एंड ऑयल” दिखाई गई. यह फ़िल्म अमेरिका की गोपनीय ऑयल पालिसी केन्द्रित विदेश नीति की परतें खोलती है. युवा पत्रकार मनोज सिंह ने इस फ़िल्म का परिचय दिया.

समारोह के तीसरे दिन सुबह का सत्र बच्चों के नाम था जिसकी शुरुआत हिरावल की बाल कलाकार रुनझुन के गीतों से हुई. इसके बाद राजेश चकवर्ती निर्देशित एनिमेशन फ़िल्म “हिप हिप हुर्रे” दिखाई गई. इस फ़िल्म के लिए बहुत प्यारे गीत जावेद अख़्तर ने लिखे हैं. अरुण खोपकर की फ़िल्म “हाथी का अण्डा” भी दिखाई गई. फ़िल्मों का परिचय कवि भगवान स्वरूप कटियार और संस्कृतिकर्मी के के वत्स ने दिया.

फ़िल्म उत्सव का एक महत्वपूर्ण सत्र उडीसा में चल रहे आन्दोलन पर बनी फ़िल्मों का था. सूर्यसंकर दास की “नियमराजा का शोकगीत” “मनुष्य का अजायबघर” “शहीद”, नीला माधव नायक की “अशेन लाइफ़” तथा मानस मृदुली और संजय राय की “नोलिया साही” दिखाई गईं. यह फ़िल्में उडीसा की जनपक्षधर संस्था “समदृष्टि” द्वारा बनाई गई हैं. इस अवसर पर निर्देशक सूर्यशंकर दास मौजूद थे. उन्होंने कहा कि वे फ़िल्में फ़िल्मोत्सवों में दिखाने के लिए नहीं बनाते बल्कि पीड़ित जनता के लिए बनाते हैं.

समारोह में लघु फ़िल्मों का भी एक सत्र था. गीतांजलि राव की प्रशंसित फ़िल्म “प्रिंटेड रेनबो” दिखाई गई. मैला ढोने वाली महिला की कहानी पर बनी फ़िल्म “पी” दिखाई गई जिसका निर्देशन आर पी अमुधन के किया है. “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” दिखाई गई जिसका निर्देशन अजय भारद्वाज ने किया है. संजय प्रताप तथा अश्विनी फलनिकर की “रिमेम्बरिंग इमरजैन्सी” दिखाई गई.

लखनऊ फ़िल्म उत्सव में एक सत्र समकालीन भारतीय कला पर भी था. इस सत्र में सुप्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने “समकालीन भारतीय कला में जनपक्षधर प्रवृतियाँ” पर अपना व्यख्यान दिया. चित्रकार अशोक भौमिक के कलाकर्म पर परिचयात्मक टिप्पणी कवि वीरेन डंगवाल ने प्रस्तुत की. जसम फ़िल्मोत्सव का समापन हिरावल द्वारा गोरख पांडे के गीत “समय का पहिया चले रे साथी” की प्रस्तुति और लेखक, पत्रकार अनिल सिन्हा के समापन वक्तव्य से हुआ. अनिल सिन्हा का कहना था कि समय और समाज की वास्तविकताओं से दूर जिस अपसंस्कृति व क्रूरता को समाज में फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है उसके विरुद्ध सिनेमा कहाँ खड़ा है यह हमने यहाँ दिखाने की कोशिश की. इस तरह के कलात्मक प्रयासों द्वारा ही हम सुन्दर, सुसंसकृत और बराबरी वाले समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं.

इस मौके पर “दमन, प्रतिरोध और सिनेमा” स्मारिका तथा चित्त प्रसाद के नौ चित्रों का लोकार्पण भी हुआ. इस समारोह में सिनेमा के साथ साथ संस्कृति की अन्य विधाओं जैसे संगीत, गायन, चित्रकला का जो मिला-जुला रूप सामने आया वह जन संस्कृति मंच की इस अवधारणा को ही अभिव्यक्त करता है कि प्रतिरोध की संस्कृति जितनी ही बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी उतनी ही उसमें विविधता, सुन्दरता, समरसता होगी.