प्रतिरोध की मुस्कान
- गौरव सोलंकी.
यह गोरखपुर का सिविल लाइंस इलाका है. मैं गोकुल अतिथि भवन के पास खड़ा हूँ, जहां अक्सर शादी के मंडप सजते हैं. उसकी बगल में ही अंग्रेजी में मिठास रेस्टोरेंट लिखा है, जिसकी स्पेलिंग में ‘ए यू' की जगह ‘ओ' लिखा है. मगर यदि वर्तनी की शुद्धियों से ही शहरों के बौद्धिक स्तर नापे जा सकते तो मुम्बई को देश का सबसे उदार शहर होना चाहिए था. मेरा मार्गदर्शन कर रहे गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह बताते हैं, ‘यह इस शहर का पांचवां फिल्म महोत्सव है. पहले हम यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में इसे करवाते थे, लेकिन पिछले साल उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि वहां यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम ही हो सकते हैं. वहां जगह भी कम थी. फिर पिछले साल हमने इसे मैरिज हॉल में करवाया और इस बार भी यहीं करवा रहे हैं.'
दोनों ही बातें आम नहीं हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में, जो गैंगवार और धर्म की राजनीति की वजह से अधिक चर्चा में रहा है, गंभीर और सरोकारी सिनेमा का एक फेस्टिवल होना और वह भी एक मैरिज हॉल में. दिल्ली के देशबंधु कॉलेज में पढ़ाने वाले संजीव कुमार, जो ‘मुम्बई मेरी जान' और ‘ए वेडनसडे' के आम आदमी के अंतर पर एक चर्चा के लिए यहां आए हैं, मजाक में कहते हैं कि इस जगह के संस्कार अलग हैं. लेकिन उस से गोरखपुर के इन उत्साही नौजवानों और बच्चों-बूढ़ों को कोई फर्क नहीं पड़ता. वे अपने शहर में ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन करना चाहते हैं, जिन्हें केबल का कोई चैनल शायद इसलिए नहीं दिखाता क्योंकि वे हाशिए पर उदास बैठे आम आदमी की बातें करती हैं. क्योंकि उनमें हर पंद्रह मिनट बाद आने वाले गीत या हंसी के दृश्य नहीं हैं. जो भी हो, जगह की कमी उन्हें उनके इरादों से नहीं डिगा सकती. उनका हौसला देखकर लगता है कि वे इस मैरिज हॉल के बिना भी यह आयोजन कर सकते थे और ऐसा सिर्फ लगता नहीं, उनके कुछ साथी गोरखपुर के सबसे पिछड़े मोहल्लों में से एक बिछिया मोहल्ले में ऐसा कर भी चुके हैं. उनमें से एक अवधेश बताते हैं, हमने रात में रामलीला मैदान में प्रोजेक्टर लगाकर वहां के लोगों को ‘द लीजेंड ऑफ़ भगतसिंह' और उमर मुख्तार की ‘लॉयन इन द डेजर्ट' दिखाई थी और हैरत की बात यह है कि उन्हें दूसरी फिल्म ज्यादा पसंद आई. हम तो चाहते हैं कि हर रात बरगद के पेड़ के नीचे प्रोजेक्टर लगाकर ऐसी फिल्में दिखाई जाएं. नुक्कड़ सिनेमा के ऐसे प्रयासों के लिए वे पाइरेसी का भी शुक्रिया अदा करते हैं. मुझे कहीं पढ़ी हुई एक मजेदार पंक्ति याद आती है- पाइरेसी समाजवाद की ओर पहला कदम है.
जिसके हॉल में उन्होंने पारदर्शी खिड़कियों पर काले परदे लगाकर अंधेरा किया है, उन लोगों ने उस परिसर का नाम रंगकर्मी शशिभूषण के नाम पर रखा है, जिनकी पिछले नवम्बर में एनएसडी में मृत्यु हो गई थी. साथ ही यह उत्सव प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता के. बालगोपाल और मराठी कवि एवं फिल्मकार दिलीप चित्ने को समर्पित है.
जन संस्कृति मंच के फिल्म संगठन ’द ग्रुप’ के संयोजक संजय जोशी कहते हैं कि हम बड़े परदे पर सार्थक सिनेमा दिखाने की वही संस्कृति वापस लाना चाहते हैं, जो कभी केरल, बंगाल और उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों में थी. वे आगे जोड़ते हैं, हमारा मकसद बेहतर फिल्में दिखाना और धीरे धीरे अपनी शर्तों पर अपनी तरह की फिल्में बनाना है और हम इसे इवेंट मैनेजमेंट का एक उदाहरण नहीं बनाना चाहते. हम चाहते हैं कि यह रोजमर्रा की खुशी और झगड़ों का हिस्सा बने.
इसीलिए 4 से 7 फरवरी तक आयोजित इस फिल्म महोत्सव का नाम रखा गया, प्रतिरोध का सिनेमा. जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण कहते हैं कि 1990 के बाद से ट्रेड यूनियन मूवमेंट, किसानों के आन्दोलन, नौजवानों में आदशर्वाद और मध्यमवर्ग के दिल में गरीबों के प्रति करुणा जिस तरह से हाशिये पर गई है, हम संस्कृतिकर्मियों को अपने अपने काम के माध्यम से उसे वापस लाना है. कुछ ऐसा ही समारोह के मुख्य अतिथि प्रख्यात फिल्मकार सईद मिर्जा कहते हैं. वे मुम्बई से सात दिन की सड़क यात्ना के बाद यहां तक पहुंचे हैं. वे बताते हैं कि इस बहाने वे अपने देश को और करीब से देखना चाहते थे. उनके साथ फिल्म निर्देशक कुंदन शाह भी हैं और सीमित संसाधनों के बावजूद सिनेमा के प्रति यहां के लोगों के जुनून को देखकर दोनों ही बहुत उत्साहित हैं.
यहाँ फीचर फिल्में भी दिखाई जाती हैं और डॉक्यूमेंट्री एवं शॉर्ट फिल्में भी. साथ ही सिनेमा के तकनीकी एवं कलात्मक पहलुओं पर चर्चाएं भी होती हैं. इस बार के महोत्सव में सईद मिर्जा की ‘सलीम लंगड़े पे मत रो' और ‘नसीम' दिखाई गई और ऋत्विक घटक की बंगाली फिल्म ‘मेघे ढाका तारा' भी. माजिद मजीदी की ‘साँग ऑफ द स्पैरो' भी दिखाई गई और गिरीश कासरवल्ली की ‘द्वीप' भी. साथ ही चार फिल्मों का प्रीमियर भी हुआ. इन सब के विषय भी बिल्कुल अलग अलग थे. जैसे कंधमाल की हिंसा पर बनी एक फिल्म ‘टकराव: किसकी हानि किसका लाभज् थी, वहीं सिक्किम, राजस्थान और तमिलनाडु के बच्चों और उनकी शिक्षा की स्थिति पर बनी ‘आई वंडर' भी थी. साथ ही बच्चों के लिए भी कई फिल्में थीं. पुस्तकों की प्रदर्शनी भी थी, जिसमें वह साहित्य था, जो छोटे शहरों में आमतौर पर नहीं मिलता.
2006 में गोरखपुर से शुरू हुआ यह प्रयोग अब लखनऊ, भिलाई, नैनीताल और पटना में भी फैल चुका है. संजय जोशी बताते हैं कि बीस और शहरों से उनके पास इस तरह के आयोजन के प्रस्ताव आए हैं. भविष्य में भी उनका इरादा भव्य समारोह करने का नहीं है. वे बस सच्चे सिनेमा को आखिरी आदमी तक पहुंचाना चाहते हैं. इस आयोजन की सबसे ख़ास बात यह है कि हर बार इसे बिना किसी कॉर्पोरेट सहयोग के आयोजित किया जाता है. बस जब आप कोई भी फिल्म देखकर बाहर निकलते हैं, तब एक डिब्बा दरवाजे पर रखा दिखता है, जिस पर लिखा है- प्रतिरोध के सिनेमा के लिए सहयोग. जाने कैसे यही छुटपुट सहयोग गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और जन संस्कृति मंच के इन लोगों में इतनी आग भर चुका है कि वे कभी थकते या हारते नहीं दिखते. यह ज़रूर है कि कभी कभी वे अंत समय में उस फिल्म की सीडी की व्यवस्था नहीं कर पाते, जिसकी उन्होंने घोषणा की है या कभी उनके जेनरेटर के खराब होने से फिल्में दस पंद्रह मिनट के लिए रुक जाती हैं. लेकिन फिर भी वे पॉपकॉर्न बेचकर अपने संसाधन नहीं जुटाते. मल्टीप्लेक्स की तरह उनकी फिल्में शाहरुख के उस विज्ञापन से शुरू नहीं होती, जिनमें आपसे अपने मोबाइल फोन बंद करने का अनुरोध किया जाता है. वे फ़ैज़ की मशहूर ग़ज़ल ‘हम देखेंगे' के उस वीडियो से शुरू करना पसंद करते हैं, जिसे पाकिस्तान में इकबाल बानो ने तब काली साड़ी पहनकर गाया था, जब वहां के कट्टर सैनिक तानाशाह ने साड़ी पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था.
तहलका (हिन्दी) से साभार.