फ़िल्मों में बिखरी प्रतिरोध की चेतना को प्रतिरोध की कारगर शक्ति बनाने का सांस्कृतिक अभियान
Wednesday, October 13, 2010
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव
सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध के सिनेमा का अभियान
आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी फीचर फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। ऐसी ही फिल्में प्रतिरोध के सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाती हैं और सिनेमा में प्रतिपक्ष का निर्माण करती हैं। जन संस्कृति मंच द्वारा ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की थीम पर 8 से 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला ;उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमी , गोमती नगर में आयोजित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव इसी तरह की फिल्मों पर केन्द्रित था। सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित इस समारोह में एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला। इस आयोजन की खासियत यह भी थी कि फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही चित्रकला, गायन और सिनेमा व संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर भी यहाँ चर्चा हुई।
समारोह का उदघाटन करते हुए हिन्दी के युवा आलोचक और जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, इलाहाबाद, भिलाई, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाकों की तस्वीर दिखाता है जिनको मास मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखाता या अपने तरीके से दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना है। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने तथा इसके द्वारा अपसंस्कृति व क्रूरताओं को फैलाने की जो कोशिश हो रही है, उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका ‘प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष’ का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।
फिल्म उत्सव की शुरुआत प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान से हुई। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम सौंपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी थी, साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रों और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए किया कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।
फिल्म समारोह में तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व उत्तराखंड के गांव पर बनी फिल्में दिखाई गई। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ (तुर्की ) , बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ (ईरानी) दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। इस फिल्म का परिचय नाटककार राजेश कुमार ने दिया।
यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे व लूटे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीवी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि बांग्ला कवि सुकान्त कहा करते थे कि मैं कवि से पहले कम्युनिस्ट हूँ, यह बात यिल्माज गुने पर लागू होती है। वे ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। जेल जाना पड़ा। देश से निर्वासित होना पड़ा। जेल में रहते हुए उन्होंने फिल्में बनाईं और उनका निर्देशन किया। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रांतिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।
बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान रमेश माजीला की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी की नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह बाजारवाद की चमक से दूर जीवन के यथार्थ से रुबरु कराती है। यह फिल्म अभी रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन प्रिमियर शो की तरह था।
फिल्म समारोह में इरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। इस फिल्म पर बोलते हुए अजय कुमार ने कहा कि ईरान में दुनिया की सबसे अच्छी फिल्में बन रही हैं। इन्हे न सिर्फ विश्व स्तर पर सराहना मिल रही है बल्कि अन्य देश के फिल्मकार इससे प्रेरणा भी ले रहे हैं। वहाँ 40 के दशक में वैकल्पिक फिल्में बनने लगी थीं। इस दौरान करीब डेढ़ दर्जन से अधिक महिला फिल्मकारों ने भी फिल्में बनाईं और वे सराही गईं। अजय कुमार ने ‘टर्टल्स कैन फलाई’ के संदर्भ में कहा कि यह न केवल दिल को दहला देने वाली फिल्म है बल्कि यह अन्दर तक झकझोर देती है। युद्ध की विभीषिका पर यूँ तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म के द्वारा युद्ध विरोधी जो संदेश मिलता है, वह अनूठा है।
कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से ‘हद-अनहद’ इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ फिल्म उत्सव में इसे दिखाया गया। इस फिल्म का परिचय देते हुए कवि भगवान स्वरूप कटयार ने कहा कि इसके माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। कबीर का राम अब भी लोक चेतना में बसा हुआ है। वह केवल किताबों तक सीमित नहीं है।
डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर काश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखाती फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। राजेश एस जाला की ‘चिल्डेन आफ पायर’ बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का पर्दाफाश करती है।
फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जन आन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।
फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’ विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिबिम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढाँचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी लोकसेन ललवानी की फिल्म ‘वे मुझे चमार कहते हैं’, एस सुखदेव की ‘पलामू के आदमखोर’, मीरा दीवान की ‘प्रेम का तोहफा’ जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए।
लखनऊ फिल्म समारोह में फिल्मों का एक सत्र बच्चो के लिए भी था। इसमें अल्बर्ट लेमूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा संकल्प मेश्राम की फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ दिखाई गई। बच्चो ने इन फिल्मों के माध्यम से खेल कूद से इतर दुनिया पर्दे पर देखी जहाँ इस दुनिया में संवेदना भी है और कई जटिल सवाल भी। उन्हें महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण गलत लगता है वहीं युद्ध बड़े लोग लड़ते हैं और उसकी कीमत बच्चों को भुगतनी पड़ती है। आखिर क्यों ? इस सत्र का संचालन के के वत्स ने किया।
फिल्म उत्सव में फिल्मों के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण के केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर ‘भेड़चाल’ के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में छात्र, नौजवानों, महिलाओं व कर्मचारियों के साथ रवीन्द्र वर्मा, ‘उदभावना’ के सम्पादक अजेय कुमार, ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, शकील सिद्दीकी, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, धर्मेन्द्र, वीरेन्द्र सारंग, चन्द्रेश्वर, नसीम साकेती, रमेश दीक्षित, आतमजीत सिंह, प्रतुल जोशी, वन्दना मिश्र, सतीश चित्रवंशी, मनोज सिंह, अशोक चैघरी आदि लेखकों व कलाकारों की उपस्थिति और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया। इस फ़िल्म उत्सव का आयोजन लखनऊ जन संस्कृति मंच ने जसम के फ़िल्म समूह द ग्रुप और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी के साथ मिलकर किया.
कौशल किशोर, संयोजक, लखनऊ जन संस्कृति मंच
एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017
मो - 09807519227
ई मेल: kaushalsil.2008@gmail.com
Sunday, October 3, 2010
प्रतिरोध के सिनेमा का तीसरा लखनऊ फ़िल्म उत्सव
प्रेस विज्ञप्ति
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह 8 से 10 अक्टूबर तक
लखनऊ, 3 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरे लखनऊ फिल्म उत्सव को सुपरिचित कलाकार व गायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित किया है। यह समारोह आगामी 8 अक्टूबर को वाल्मीकि रंगशाला, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाम चार बजे शुरू होगा तथा 10 अक्टूबर तक चलेगा। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम पर आयोजित इस फिल्म उत्सव का उदघाटन हिन्दी के जाने-माने आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण करेंगे तथा ‘जीवन और कला: सदर्भ तेभागा किसान आंदोलन और सोमनाथ होड़’ पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के व्याख्यान से समारोह की शुरुआत होगी।
फीचर फिल्मों की श्रृंखला में गौतम घोष की ‘पार’ तथा बेला नेगी की ‘दाँये या बाँये’ दिखाई जायेंगी। ‘दाँये या बाँये’ में गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की यादगार भूमिका है। समारोह में पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी फिल्मकार इल्माज गुने की चर्चित फिल्म ‘सुरू’ का प्रदर्शन होगा, वहीं लखनऊ के दर्शक ईरानी फीचर फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ देख सकेंगे। ईरान के प्रसिद्ध फिल्मकार बेहमन गोबादी के निर्देशन में युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म उस विभीषिका को सामने लाती है जिसमें मनुष्य और मनुष्यता को खत्म किया जा रहा है।
लखनऊ फिल्म समारोह में वृतचित्रों के खण्ड में कबीर पर बनाई शबनम विरमानी की फिल्म ‘हद अनहद’ दिखाई जायेगी। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सत्ता के दमन और उसके खिलाफ संघर्ष तथा जनजीवन को गहरे प्रभावित करने वाली घटनाओं और त्रासदी को केन्द्र कर कई वृतचित्र बने जैसे कश्मीर पर संजय काक ने ‘जश्ने आजादी’ बनाई तो ओडीशा के कंधमाल में हुए दंगों पर देबरंजन सारंगी ने ‘फ्राम हिन्दू टू हिन्दूत्व’, बनारस के मणिकर्णिका घाट पर चिता जलाने वाले बच्चों की दशा पर राजेश एस जाला ने ‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’, पुणे महानगर में कचरे की राजनीति व सफाई कर्मचारियों के कर्मजीवन पर अतुल पेठे ने ‘कचरा व्यूह’ जैसे वृतचित्रों का निर्माण किया। ये फिल्में लखनऊ फिल्म समारोह का मुख्य आकर्षण होंगी।
इस फिल्म उत्सव में बच्चों का भी एक सत्र है जिसमें अल्बर्ट लामूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा हिन्दी फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ का आनन्द बच्चे उठा सकेंगे। फिल्मों के अलावा समारोह में संवाद, परिचर्चा तथा गायन के भी कार्यक्रम होंगे। ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’, ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’, बदलती दुनिया में सिनेमा’ आदि विषयों पर परिसंवाद में अजय कुमार, अजय सिंह, संजय जोशी, राजेश कुमार, अनिल सिन्हा, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह आदि भाग लेंगे। तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा तैयार म्यूजिक वीडियो के गुलदस्ते ‘हम देखेंगे’ का लखनऊ के दर्शक आस्वादन करेंगे। मालविका भी अपना गायन प्रस्तुत करेंगी।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने बताया कि आज दर्शक स्वस्थ मनोरंजन चाहता है और हमारी कोशिश है कि जनता तक ऐसी कला पहुँचाई जाय जो उन्हें सजग, संवेदनशील, जागरुक और जुझारू बनाये। सिनेमा सशक्त व लोकप्रिय कला माध्यम है। यह आन्दोलन और प्रतिरोध का माध्यम बने। आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी कथा फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। इसी तरह की फिल्मों को लेकर तीन दिन का यह कार्यक्रम है। फिल्मों का प्रदर्शन निशुल्क और जनता के सहयोग से किया जा रहा है। इस अवसर पर ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ स्मारिका भी जारी की जायेगी।
प्रेस वार्ता को लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, नाटककार राजेश कुमार, कवि भगवान स्वरूप कटियार , संस्कृतिकर्मी रवीन्द्र कुमार सिन्हा आदि ने भी सम्बोधित किया।
कौशल किशोर
संयोजक, जन संस्कृति मंच, लखनऊ
कार्यालय : एफ- 3144 , राजाजीपुरम, लखनऊ- 226017
फ़ोन: 09807519227, 09415220306, 09415568836, 09415114685
email : kaushalsil.2008@gmail.com, thegroup.jsm@gmail.com
प्रतिरोध के सिनेमा का तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव
प्रेस विज्ञप्ति
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह 8 से 10 अक्टूबर तक
लखनऊ, 3 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरे लखनऊ फिल्म उत्सव को सुपरिचित कलाकार व गायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित किया है। यह समारोह आगामी 8 अक्टूबर को वाल्मीकि रंगशाला, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाम चार बजे शुरू होगा तथा 10 अक्टूबर तक चलेगा। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम पर आयोजित इस फिल्म उत्सव का उदघाटन हिन्दी के जाने-माने आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण करेंगे तथा ‘जीवन और कला: सदर्भ तेभागा किसान आंदोलन और सोमनाथ होड़’ पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के व्याख्यान से समारोह की शुरुआत होगी।
फीचर फिल्मों की श्रृंखला में गौतम घोष की ‘पार’ तथा बेला नेगी की ‘दाँये या बाँये’ दिखाई जायेंगी। ‘दाँये या बाँये’ में गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की यादगार भूमिका है। समारोह में पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी फिल्मकार इल्माज गुने की चर्चित फिल्म ‘सुरू’ का प्रदर्शन होगा, वहीं लखनऊ के दर्शक ईरानी फीचर फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ देख सकेंगे। ईरान के प्रसिद्ध फिल्मकार बेहमन गोबादी के निर्देशन में युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म उस विभीषिका को सामने लाती है जिसमें मनुष्य और मनुष्यता को खत्म किया जा रहा है।
लखनऊ फिल्म समारोह में वृतचित्रों के खण्ड में कबीर पर बनाई शबनम विरमानी की फिल्म ‘हद अनहद’ दिखाई जायेगी। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सत्ता के दमन और उसके खिलाफ संघर्ष तथा जनजीवन को गहरे प्रभावित करने वाली घटनाओं और त्रासदी को केन्द्र कर कई वृतचित्र बने जैसे कश्मीर पर संजय काक ने ‘जश्ने आजादी’ बनाई तो ओडीशा के कंधमाल में हुए दंगों पर देबरंजन सारंगी ने ‘फ्राम हिन्दू टू हिन्दूत्व’, बनारस के मणिकर्णिका घाट पर चिता जलाने वाले बच्चों की दशा पर राजेश एस जाला ने ‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’, पुणे महानगर में कचरे की राजनीति व सफाई कर्मचारियों के कर्मजीवन पर अतुल पेठे ने ‘कचरा व्यूह’ जैसे वृतचित्रों का निर्माण किया। ये फिल्में लखनऊ फिल्म समारोह का मुख्य आकर्षण होंगी।
इस फिल्म उत्सव में बच्चों का भी एक सत्र है जिसमें अल्बर्ट लामूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा हिन्दी फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ का आनन्द बच्चे उठा सकेंगे। फिल्मों के अलावा समारोह में संवाद, परिचर्चा तथा गायन के भी कार्यक्रम होंगे। ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’, ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’, बदलती दुनिया में सिनेमा’ आदि विषयों पर परिसंवाद में अजय कुमार, अजय सिंह, संजय जोशी, राजेश कुमार, अनिल सिन्हा, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह आदि भाग लेंगे। तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा तैयार म्यूजिक वीडियो के गुलदस्ते ‘हम देखेंगे’ का लखनऊ के दर्शक आस्वादन करेंगे। मालविका भी अपना गायन प्रस्तुत करेंगी।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने बताया कि आज दर्शक स्वस्थ मनोरंजन चाहता है और हमारी कोशिश है कि जनता तक ऐसी कला पहुँचाई जाय जो उन्हें सजग, संवेदनशील, जागरुक और जुझारू बनाये। सिनेमा सशक्त व लोकप्रिय कला माध्यम है। यह आन्दोलन और प्रतिरोध का माध्यम बने। आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी कथा फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। इसी तरह की फिल्मों को लेकर तीन दिन का यह कार्यक्रम है। फिल्मों का प्रदर्शन निशुल्क और जनता के सहयोग से किया जा रहा है। इस अवसर पर ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ स्मारिका भी जारी की जायेगी।
प्रेस वार्ता को लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, नाटककार राजेश कुमार, कवि भगवान स्वरूप कटियार , संस्कृतिकर्मी रवीन्द्र कुमार सिन्हा आदि ने भी सम्बोधित किया।
कौशल किशोर
संयोजक
जन संस्कृति मंच, लखनऊ
e mail : kaushalsil.2008@gmail.com
प्रतिरोध के सिनेमा का तीसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह
प्रेस वार्ता में जारी विज्ञप्ति
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह 8 से 10 अक्टूबर तक
लखनऊ, 3 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरे लखनऊ फिल्म उत्सव को सुपरिचित कलाकार व गायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित किया है। यह समारोह आगामी 8 अक्टूबर को वाल्मीकि रंगशाला, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाम चार बजे शुरू होगा तथा 10 अक्टूबर तक चलेगा। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम पर आयोजित इस फिल्म उत्सव का उदघाटन हिन्दी के जाने-माने आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महामंत्री प्रणय कृष्ण करेंगे तथा ‘जीवन और कला: सदर्भ तेभागा किसान आंदोलन और सोमनाथ होड़’ पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के व्याख्यान से समारोह की शुरुआत होगी।
फीचर फिल्मों की श्रृंखला में गौतम घोष की ‘पार’ तथा बेला नेगी की ‘दाँये या बाँये’ दिखाई जायेंगी। ‘दाँये या बाँये’ में गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की यादगार भूमिका है। समारोह में पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी फिल्मकार इल्माज गुने की चर्चित फिल्म ‘सुरू’ का प्रदर्शन होगा, वहीं लखनऊ के दर्शक ईरानी फीचर फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ देख सकेंगे। ईरान के प्रसिद्ध फिल्मकार बेहमन गोबादी के निर्देशन में युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म उस विभीषिका को सामने लाती है जिसमें मनुष्य और मनुष्यता को खत्म किया जा रहा है।
लखनऊ फिल्म समारोह में वृतचित्रों के खण्ड में कबीर पर बनाई शबनम विरमानी की फिल्म ‘हद अनहद’ दिखाई जायेगी। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सŸाा के दमन और उसके खिलाफ संघर्ष तथा जनजीवन को गहरे प्रभावित करने वाली घटनाओं और त्रासदी को केन्द्र कर कई वृतचित्र बने जैसे कश्मीर पर संजय काक ने ‘जश्ने आजादी’ बनाई तो ओडीशा के कंधमाल में हुए दंगों पर देबरंजन सारंगी ने ‘फ्राम हिन्दू टू हिन्दूत्व’, बनारस के मणकर्णिका घाट पर चिता जलाने वाले बच्चों की दशा पर राजेश एस जाला ने ‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’, पुणे महानगर में कचरे की राजनीति व सफाई कर्मचारियों के कर्मजीवन पर अतुल पेठे ने ‘कचरा व्यूह’ जैसे वृतचित्रों का निर्माण किया। ये फिल्में लखनऊ फिल्म समारोह का मुख्य आकर्षण होंगी।
इस फिल्म उत्सव में बच्चांे का भी एक सत्र है जिसमें अल्बर्ट लामूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा हिन्दी फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ का आनन्द बच्चे उठा सकेंगे। फिल्मों के अलावा समारोह में संवाद, परिचर्चा तथा गायन के भी कार्यक्रम होंगे। ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’, ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’, बदलती दुनिया में सिनेमा’ आदि विषयों पर परिसंवाद में अजय कुमार, अजय सिंह, संजय जोशी, राजेश कुमार, अनिल सिन्हा, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह आदि भाग लेंगे। तरुण भारतीय और के मार्क स्वीअर की म्यूजिक वीडियो ‘हम देखेंगे’ का लखनऊ के दर्शक आस्वादन करेंगे। मालविका भी अपना गायन प्रस्तुत करेंगी।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने बताया कि आज दर्शक स्वस्थ मनोरंजन चाहता है और हमारी कोशिश है कि जनता तक ऐसी कला पहुँचाई जाय जो उन्हें सजग, संवेदनशील, जागरुक और जुझारू बनाये। सिनेमा सशक्त व लोकप्रिय कला माध्यम है। यह आन्दोलन और प्रतिरोध का माध्यम बने। आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी कथा फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। इसी तरह की फिल्मों को लेकर तीन दिन का यह कार्यक्रम है। फिल्मों का प्रदर्शन निशुल्क और जनता के सहयोग से किया जा रहा है। इस अवसर पर ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ स्मारिका भी जारी की जायेगी।
प्रेस वार्ता को लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, नाटककार राजेश कुमार, कव भगवान स्वरूप कटयार, संस्कृतिकर्मी रवीन्द्र कुमार सिन्हा आदि ने भी सम्बोधित किया।
कौशल किशोर
संयोजकजन संस्कृति मंच, लखनऊ
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह 8 से 10 अक्टूबर तक
लखनऊ, 3 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरे लखनऊ फिल्म उत्सव को सुपरिचित कलाकार व गायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित किया है। यह समारोह आगामी 8 अक्टूबर को वाल्मीकि रंगशाला, प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाम चार बजे शुरू होगा तथा 10 अक्टूबर तक चलेगा। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम पर आयोजित इस फिल्म उत्सव का उदघाटन हिन्दी के जाने-माने आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महामंत्री प्रणय कृष्ण करेंगे तथा ‘जीवन और कला: सदर्भ तेभागा किसान आंदोलन और सोमनाथ होड़’ पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के व्याख्यान से समारोह की शुरुआत होगी।
फीचर फिल्मों की श्रृंखला में गौतम घोष की ‘पार’ तथा बेला नेगी की ‘दाँये या बाँये’ दिखाई जायेंगी। ‘दाँये या बाँये’ में गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की यादगार भूमिका है। समारोह में पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी फिल्मकार इल्माज गुने की चर्चित फिल्म ‘सुरू’ का प्रदर्शन होगा, वहीं लखनऊ के दर्शक ईरानी फीचर फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ देख सकेंगे। ईरान के प्रसिद्ध फिल्मकार बेहमन गोबादी के निर्देशन में युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म उस विभीषिका को सामने लाती है जिसमें मनुष्य और मनुष्यता को खत्म किया जा रहा है।
लखनऊ फिल्म समारोह में वृतचित्रों के खण्ड में कबीर पर बनाई शबनम विरमानी की फिल्म ‘हद अनहद’ दिखाई जायेगी। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सŸाा के दमन और उसके खिलाफ संघर्ष तथा जनजीवन को गहरे प्रभावित करने वाली घटनाओं और त्रासदी को केन्द्र कर कई वृतचित्र बने जैसे कश्मीर पर संजय काक ने ‘जश्ने आजादी’ बनाई तो ओडीशा के कंधमाल में हुए दंगों पर देबरंजन सारंगी ने ‘फ्राम हिन्दू टू हिन्दूत्व’, बनारस के मणकर्णिका घाट पर चिता जलाने वाले बच्चों की दशा पर राजेश एस जाला ने ‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’, पुणे महानगर में कचरे की राजनीति व सफाई कर्मचारियों के कर्मजीवन पर अतुल पेठे ने ‘कचरा व्यूह’ जैसे वृतचित्रों का निर्माण किया। ये फिल्में लखनऊ फिल्म समारोह का मुख्य आकर्षण होंगी।
इस फिल्म उत्सव में बच्चांे का भी एक सत्र है जिसमें अल्बर्ट लामूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा हिन्दी फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ का आनन्द बच्चे उठा सकेंगे। फिल्मों के अलावा समारोह में संवाद, परिचर्चा तथा गायन के भी कार्यक्रम होंगे। ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’, ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’, बदलती दुनिया में सिनेमा’ आदि विषयों पर परिसंवाद में अजय कुमार, अजय सिंह, संजय जोशी, राजेश कुमार, अनिल सिन्हा, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह आदि भाग लेंगे। तरुण भारतीय और के मार्क स्वीअर की म्यूजिक वीडियो ‘हम देखेंगे’ का लखनऊ के दर्शक आस्वादन करेंगे। मालविका भी अपना गायन प्रस्तुत करेंगी।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने बताया कि आज दर्शक स्वस्थ मनोरंजन चाहता है और हमारी कोशिश है कि जनता तक ऐसी कला पहुँचाई जाय जो उन्हें सजग, संवेदनशील, जागरुक और जुझारू बनाये। सिनेमा सशक्त व लोकप्रिय कला माध्यम है। यह आन्दोलन और प्रतिरोध का माध्यम बने। आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी कथा फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। इसी तरह की फिल्मों को लेकर तीन दिन का यह कार्यक्रम है। फिल्मों का प्रदर्शन निशुल्क और जनता के सहयोग से किया जा रहा है। इस अवसर पर ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ स्मारिका भी जारी की जायेगी।
प्रेस वार्ता को लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, नाटककार राजेश कुमार, कव भगवान स्वरूप कटयार, संस्कृतिकर्मी रवीन्द्र कुमार सिन्हा आदि ने भी सम्बोधित किया।
कौशल किशोर
संयोजकजन संस्कृति मंच, लखनऊ