जन संस्कृति मंच
प्रॆस विग्यप्ति
2 अगस्त, दिल्ली .जन संस्कृति मंच पिछले दिनों म. गा ही. वि. वि. के कुलपति श्री विभूति राय द्वारा एक साक्षात्कार के दौरान हिंदी रत्री लेखन और लेखिकाओं के बारे में असम्मानजनक वक्तव्य की घोर निंदा करता है. यह साक्षात्कार उन्होंने नया ज्ञानोदय पत्रिका को दिया था. हमारी समझ से यह बयान न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है , बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक हैं. इतना ही नहीं बल्कि बयान हिंदी के स्त्रीलेखन की एक सतही समझ को भी प्रदर्शित करता है. आश्चार्य है की पूरे साक्षात्कार में यह बयान पैबंद की तरह अलग से दीखता है क्योंकि बाकी कही गई बातों से उसका कॊई सम्बन्ध् भी नहीं है. अच्छा हो कि श्री राय अपने बयान पर सफाई देने की जगह उसे वापस लें और लेखिकाओं से माफ़ी मांगें.
नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींद्र कालिया अगर चाहते तो इस बयान को अपने सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन के लिए, चर्चा के लिए उपयोगी समझा.
आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई सम्पादक , लेखक बेचैन हैं. इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्रकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएँ हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री-अस्तित्व. रवींद्र कालिया को भी इसके लिए माफी माँगना चाहिए. जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते. साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री-विरोधी, अराजक भाषा की ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन संभव है और न विमर्श. जसम हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धजन कॆ साथ है जिन्हॊनॆ इस बयान पर अपना रॊष व्यक्त किया है.
प्रणय कृष्ण,नया ज्ञानोदय के सम्पादक रवींद्र कालिया अगर चाहते तो इस बयान को अपने सम्पादकीय अधिकार का प्रयोग कर छपने से रोक सकते थे. लेकिन उन्होंने तो इसे पत्रिका के प्रमोशन के लिए, चर्चा के लिए उपयोगी समझा.
आज के बाजारवादी, उपभोक्तावादी दौर में साहित्य के हलकों में भी सनसनी की तलाश में कई सम्पादक , लेखक बेचैन हैं. इस सनसनी-खोजी साहित्यिक पत्रकारिता का मुख्य निशाना स्त्री लेखिकाएँ हैं और व्यापक स्तर पर पूरा स्त्री-अस्तित्व. रवींद्र कालिया को भी इसके लिए माफी माँगना चाहिए. जिन्हें स्त्री लेखन के व्यापक सरोकारों और स्त्री मुक्ति की चिंता है वे इस भाषा में बात नहीं किया करते. साठोत्तरी पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने जिस स्त्री-विरोधी, अराजक भाषा की ईजाद की, उस भाषा में न कोई मूल्यांकन संभव है और न विमर्श. जसम हिंदी की उन तमाम लेखिकाओं व प्रबुद्धजन कॆ साथ है जिन्हॊनॆ इस बयान पर अपना रॊष व्यक्त किया है.
महासचिव, जसम
1 comment:
Kahin aisa to nahin ki Kaliya ji ne yah "paiband" laga diya :)
Post a Comment