Saturday, November 5, 2011

सिनेमा की जमती जमीन - प्रतिरोध का सिनेमा का तीसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल

उत्तराखंड की सरोवर और पर्यटन नगरी नैनीताल में इस बार, द ग्रुप जन संस्कृति मंच और युगमंच, नैनीताल की साझी कोशिशों के चलते ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान 30, 31 अक्टूबर और 1 नवम्बर को अपनी निरन्तरता में ‘तीसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल’ के रूप में सम्पन्न हुआ। अब हमारे बीच नहीं रहे प्रसिद्ध फिल्मकार मणि कौल, क्रांतिकारी नाट्यकर्मी और जन संस्कृति मंच के संस्थापक अध्यक्ष गुरुशरण सिंह तथा प्रसिद्ध टीवी पत्रकार कवि कुबेर दत्त की स्मृति को समर्पित इस बार के आयोजन में उल्लेखनीय यह भी रहा कि फिल्मों के साथ-साथ जन समाज से जुड़े मुद्दों पर शोधपरक व्याख्यान और फिल्म निर्माण की ऐतिहासिक यात्रा (छवि, ध्वनि, पाश्र्व संगीत आदि के संदर्भ में) पर भी जानकारी प्रस्तुत की गयी थी। नैनीताल चूंकि सक्रिय बौधिक संस्कृतिकर्मियों और बड़ी पहचान वाले साहित्यक नामों के लिये भी सुपरिचित है अतः ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अपनी अंर्तवस्तु में भी यहां बेहतर ढंग से स्थापित हो पाया है।

तीसरे फिल्मोत्सव के ब्यौरों में जाने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक सांस्कृतिक आंदोलन है जिसके अंतर्गत सृजन की सभी विधायें, कला के सभी रूप और संस्कृति के सभी पक्ष वस्तुगत चिन्तन के धरातल पर देश-दुनिया-समाजों को उन्नत, मुक्त और मानवीय गरिमा प्रदान करने के लिये संघर्षरत है। कोई भी संघर्ष बिना प्रतिरोध के संभव नहीं और कोई भी प्रतिरोध बिना विचार के आगे नहीं बढ़ सकता। आज हम जिस दौर में हैं वह तथाकथित रूप से भूमंडलीकरण और वास्तविक रूप से साम्राजी पूंजी के दानवी तंत्र के शिकंजे में कसा हुआ है। कला सृजन की आधुनिकतम विधा सिनेमा और संचार के संजाल ने जहा कारपोरेट सत्ताओं की शोषण लूट की राजनीति को मजबूत किया है वहीं आमजन समाज को भी एक हथियार के रूप में सिने माध्यम को अनुकूल बनाया है। यह अपनी तरह की बिल्कुल नयी जद्दोजहद है। इसी जदोजहद के चलते सिने माध्यम प्रतिरोध के सिनेमा के केन्द्रीय औजार बन पाये हैं। पिछले एक दशक के भीतर जन संस्कृति मंच ने गोरखपुर शहर को केन्द्र बनाकर पूरे उत्तर भारत के 22-25 छोटे-बड़े शहरों में प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन के जरिये प्रतिरोध की राजनीति और प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने में अग्रगति पायी है। इसी का एक पड़ाव उत्तराखंड का नैनीताल शहर भी है। जहां के आयोजन का ब्यौरा आपके समक्ष है।

पहले दिन यानि उद्घाटन के अवसर पर अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल ने अपने वक्तव्य में अर्थपूर्ण विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि आधुनिकतम कला विधा सिनेमा और सबसे प्राचीन विधा कविता में कामन तत्व हैं कि दोनों बिम्बों के माध्यम से सृजित होते हैं और करोड़ों बिम्बों में से एक को चुनकर उसे आकार देना पड़ता है। उद्घाटन में मुख्य अतिथि के रूप में विश्व मोहन बडोला ने फिल्म फेस्टिवल के मकसद को तो सराहा ही और सलाह भी दी कि राज्य के अन्य शहरों में भी अपरिहार्य रूप से इसकी शुरूआत होनी चाहिये। बडोला जी की यह शिकायत थी कि उत्तराखंड सरकार की कोई नीति नहीं है लिहाजा प्रतिरोध का सिनेमा एक सशक्त दबाव बना सकेगा और उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को संवारने का कार्य भी संभव होगा।

प्रतिरोध का सिनेमा’ का राष्ट्रीय अभियान के संयोजक संजय जोशी और जन संस्कृति मंच के उत्तराखंड संयोजक प्रसिद्ध रंगकर्मी ज़हूर आलम ने शैले हाल में पधारे सभी दर्शकों का स्वागत करने के साथ अभियान के व्यापक उद्देश्यों को सामने रखा। साथ ही एक प्लेटफार्म के रूप में फिल्म फेस्टिवल से जुड़ने के लिये अन्य तमाम समानधर्मी संगठनों, व्यक्तियों को आमंत्रित किया। संजय जोशी ने तकनीकी विकास की प्रबलता और सुविधा को सामाजिक सरोकारों के पक्ष में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उड़ीसा के युवा चित्रकार प्रणव प्रकाश मोहंती इस बार नैनीताल फिल्मोत्सव से यहां के दर्शकों से परिचित हुए। उनके 30 के आसपास चित्रों की प्रदर्शनी का अलग आकर्षण था। कला इतिहास के स्नातक प्रणव अपनी कला और सोच को बाजारवाद के विरुद्ध खड़ा करने के संकल्प के साथ कला के सत्य को बचाये हुए हैं। फेस्टिवल में लगे उनके चित्र निरीह को ताकत देते लगते हैं। जबकि उनका प्रिय रंग काला है जिसे वह रोशनी के सौदागरों को चुनौती देते लगते हैं। उद्घाटन के अवसर पर फेस्टिवल में दिखायी जाने वाली फिल्म कुन्दन शाह की ‘जाने भी दो यारों’ थी। 1983 में बनी यह फिल्म अपने समय की व्यवस्थागत विडम्बना को हास्य व्यंग के साथ प्रस्तुत करती है। दौर के बदलाव के बावजूद जाने भी दो यारो का सत्य आज अपने सबसे नंगे रूप में मौजूद है।
फेस्टिवल का दूसरा दिन विविध स्तरीय व्याख्यानों, चर्चित लघु फिल्मों और बच्चों के कार्यक्रम समेटने वाला था। रामा मोंटेसरी स्कूल नैनीताल के बच्चों ने लोक गीत और लोकनृत्य की प्रस्तुति दी तो आशुतोष उपाध्याय ने बच्चों को धरती के गर्भ की संरचना, आग, पानी, खनिज आदि को बेहद रोचक व सरल तरीके से समझाया। इसके बाद पंकज अडवानी द्वारा निर्देशित हिन्दी बाल फिल्म ‘सण्डे’ का प्रदर्शन भी किया गया। उल्लेखनीय बात यह है कि शैले हाल में लगभग 500 बच्चों ने भागीदारी की। कुछ बच्चों ने हाल के बाहर बच्चों के लिए विशेष रूप से बनायी गयी गैलरी में अपने हुनर का इस्तेमाल करते हुए रोचक चित्र और रेखांकन बनाए । आयोजन टीम ने छोटे बच्चों को बहुत प्यारी छोटी पतंगें भी भेंटस्वरूप दीं ।
लघु फिल्मों में ‘द स्टोरी आफ स्टफ’, ग्लास, ज़ू, भाल खबर, दुर्गा के शिल्पकार और पाकिस्तान के लाल बेंड के म्यूजिक वीडियो के प्रदर्शन ने दर्शकों को विविध विषयों से जोड़ा। दिखायी गयी सभी लघु फिल्में विश्व और भारतीय फिल्मकारों की थी। उपरोक्त में पाकिस्तान के लाल बैंड को थोड़ा इस प्रकार से दर्ज करने की आवश्यकता है कि इसके कार्यक्रम में पाकिस्तान के तीन बड़े इंकलाबी शायरों-फ़ैज़, हबीब ग़ालिब और अहमद फराज की शायरी को आवाम की धरोहर बना दिया है। निश्चित ही लाल बैंड अपने विचारों से भी जुड़ा है।

दूसरे दिन का अंतिम सत्र तीन अलग-अलग क्षेत्रों पर केन्द्रित व्याख्यानों के कारण महत्वपूर्ण हो गया। प्रभात गंगोला द्वारा प्रस्तुत प्रथम व्याख्यान भारतीय सिनेमा के बैक ग्राउंड स्कोर अर्थात् पाश्र्व ध्वनि संयोजन के विकास पर आधारित था कि कैसे तकनीकी विकास ने सिनेमा के पाश्र्व पक्ष को उन्नत बनाया और उसकी ऐतिहासिक यात्रा किन-किन पड़ावों से गुजरी। दूसरा व्याख्यान उड़ीसा में विकास की त्रासदी पर केन्द्रित था जिसे वहां के सूर्य शंकर दाश ने प्रस्तुत किया। पास्को, वेदांत जैसी कुख्यात कंपनियां किस प्रकार उड़ीसा के नियामगिरी इलाके को बर्बाद करने पर तुली हैं। इसको रिकार्ड करने के लिये कैसे कुछ लोग गुरिल्ला तरीके से अपना काम कर रहे हैं और राज्य, केन्द्र सरकार तथा बहुराष्ट्रीय निगमों के गठजोड़ को बेनकाब कर रहे हैं, श्री दाश अपने व्याख्यान को विडियो क्लिपिंग्स के माध्यम से सामने रखते हैं। राष्ट्रीय मीडिया के तमाम चैनल के लिये यह कोई खबर नहीं है। तीसरा व्याख्यान विकास के ही एक नये माडल उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधों द्वारा रचे जा रहे विनाश के कुचक्र पर केन्द्रित था जिसे इंद्रेश मैखुरी ने प्रस्तुत किया। मैखुरी भाकपा (माले) के नेता हैं। उड़ीसा के समानान्तर उत्तराखंड में विकास के नाम पर बड़ी पूंजी का आतंक कायम हो चुका है और यह सच्चाई शीशे की तरह साफ है कि बड़े बांध, जिनकी संख्या 50 से उपर है, लगभग उत्तराखंड की में सारी नदियों के ऊपर बन रहे हैं। एक तरह से यह उत्तराखंड की ग्रामीण जनता के लिये बर्बादी की फरमान हैं। श्री मैखुरी ने तमाम ब्यौरों के रूप में इस दुश्चक्र के सारे बिन्दुओं को सामने रखा।

तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत मणि कौल निर्देशित फिल्म ‘दुविधा’ से हुई। ‘दुविधा’ भारत में 60-70 के दशक में समांतर और कला फिल्मों के दौर की क्लासिकल फिल्म थी। राजस्थान की सामंती पृष्ठभूमि में स्त्री की नियति को दर्शाने वाली ‘दुविधा’ को कथारूप देने वाले हैं विजयदान देथा। महिला फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी आज सिने क्षेत्र में भी सक्रिय हो चुकी है। ‘दुविधा’ के प्रदर्शन के बाद चार महिला फिल्मकारों की फिल्में दिखायी गयी। सब्जी मंडी के हीरे (निलिता वाच्छानी), कमलाबाई (रीना मोहन), सुपरमैन आफ मालेगांव (फै़ज़ा अहमद खान) और व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू किस्रेंट मून ? (इफ़त फातिमा)। इन चारों वृत्त चित्रों में अलग-अलग विषय हैं।


नदियों को विषय बनाकर अपल ने अफ्रीका की जाम्बेजी से लेकर भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा और गोमती की रोमांचक यात्रा और इनकी बदलती स्थितियों पर पूर्व से लेकर आज तक एक नजर डाली बोलकर भी और नदी यात्राओं की फिल्म दिखा कर भी। उन्होंने विशेष रूप से इन नदियों और नदी तटवासियों के बरबाद होने के कारणों पर भी गहरी नजर डाली। उत्तराखंड तो तमाम महत्वपूर्ण नदियों कर उद्गम है और नदियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। तीसरे दिन के व्याख्यान रुपी अंतिम प्रस्तुति सुप्रसिद्ध ब्राडकास्टर के. नन्दकुमार थे जिन्होंने दिल्ली से आकर ब्राडकास्टिंग की दुनिया का कैमरे और अन्य उपकरणों के निरन्तर विकास के क्रम में सजाया और फिल्म के माध्यम से बताया।

फैस्टिवल की अंतिम प्रस्तुति क्रांतिकारी धारा के कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी के काव्यपाठ और उन पर बनी फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ थी। विद्रोही जी अपनी अनोखी शैली और अद्भुत काव्य क्षमता के कारण लोगों के बीच में पहचाने जाते हैं।

..... मदन चमोली