Tuesday, December 28, 2010

लोकतंत्र को उम्रकैद


बिनायक सेन की गिरफ्तारी की खबर के बाद विरोध प्रदर्शनों और उनके साथ खड़े होने का सिलसिला अब तेजी से आगे बढ चला है। इसी क्रम में पढ़िये जन संस्कृति मंच के महासचिव और युवा आलोचक प्रणय कृष्ण का एक महत्त्वपूर्ण आलेख .......


25 दिसम्बर, 2010
ये मातम की भी घडी है और इंसाफ की एक बडी लडाई छेडने की भी. मातम इस देश में बचे-खुचे लोकतंत्र का गला घोंटने पर और लडाई - न पाए गए इंसाफ के लिए जो यहां के हर नागरिक का अधिकार है. छत्तीसगढ की निचली अदालत ने विख्यात मानवाधिकारवादी, जन-चिकित्सक और एक खूबसूरत इंसान डा. बिनायक सेन को भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी और धारा 124-ए, छत्तीसगढ विशेष जन सुरक्षा कानून की धारा 8(1),(2),(3) और (5) तथा गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक कानून की धारा 39(2) के तहत राजद्रोह और राज्य के खिलाफ युद्ध छेडने की साज़िश करने के आरोप में 24 दिसम्बर के दिन उम्रकैद की सज़ा सुना दी. यहां कहने का अवकाश नहीं कि कैसे ये सारे कानून ही कानून की बुनियाद के खिलाफ हैं. डा. सेन को इन आरोपों में 24 मई, 2007 को गिरफ्तार किया गया और सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से पूरे दो साल साधारण कैदियों से भी कुछ मामलों में बदतर स्थितिओं में जेल में रहने के बाद, उन्हें ज़मानत दी गई. मुकादमा उनपर सितम्बर 2008 से चलना शुरु हुआ. सर्वोच्च न्यायालय ने यदि उन्हें ज़मानत देते हुए यह न कहा होता कि इस मुकदमे का निपटारा जनवरी 2011 तक कर दिया जाए, तो छत्तीसगढ सरकार की योजना थी कि मुकदमा दसियों साल चलता रहे और जेल में ही बिनायक सेन बगैर किसी सज़ा के दसियों साल काट दें. बहरहाल जब यह सज़िश नाकाम हुई और मजबूरन मुकदमें की जल्दी-जल्दी सुनवाई में सरकार को पेश होना पडा, तो उसने पूरा दम लगाकर उनके खिलाफ फर्ज़ी साक्ष्य जुटाने शुरु किए. डा. बिनायक पर आरोप था कि वे माओंवादी नेता नारायण सान्याल से जेल में 33 बार 26 मई से 30 जून, 2007 के बीच मिले. सुनवाई के दौरान साफ हुआ कि नारायण सान्याल के इलाज के सिलसिले में ये मुलाकातें जेल अधिकारियों की अनुमति से , जेलर की उपस्थिति में हुईं. डा. सेन पर मुख्य आरोप यह था कि उन्होंने नारायण सान्याल से चिट्ठियां लेकर उनके माओंवादी साथियों तक उन्हें पहुंचाने में मदद की. पुलिस ने कहा कि ये चिट्ठियां उसे पीयुष गुहा नामक एक कलकत्ता के व्यापारी से मिलीं जिसतक उसे डा. सेन ने पहुंचाया था. गुहा को पुलिस ने 6 मई,2007 को रायपुर में गिरफ्तार किया. गुहा ने अदालत में बताया कि वह 1 मई को गिरफ्तार हुए. बहरहाल ये पत्र कथित रूप से गुहा से ही मिले, इसकी तस्दीक महज एक आदमी अ़निल सिंह ने की जो कि एक कपडा व्यापारी है और पुलिस के गवाह के बतौर उसने कहा कि गुहा की गिरफ्तरी के समय वह मौजूद था. इन चिट्ठियों पर न कोई नाम है, न तारीख, न हस्ताक्षर , न ही इनमें लिखी किसी बात से डा. सेन से इनके सम्बंधों पर कोई प्रकाश पडता है. पुलिस आजतक भी गुहा और डा़ सेन के बीच किसी पत्र-व्यवहार, किसी फ़ोन-काल,किसी मुलाकात का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाई. एक के बाद एक पुलिस के गवाह जिरह के दौरान टूटते गए. पुलिस ने डा.सेन के घर से मार्क्सवादी साहित्य और तमाम कम्यूनिस्ट पार्टियों के दस्तावेज़ , मानवाधिकार रिपोर्टें, सी.डी़ तथा उनके कम्प्यूटर से तमाम फाइलें बरामद कीं. इनमें से कोई चीज़ ऐसी न थी जो किसी भी सामान्य पढे लिखे, जागरूक आदमी को प्राप्त नहीं हो सकतीं. घबराहट में पुलिस ने भाकपा (माओंवादी) की केंद्रीय कमेटी का एक पत्र पेश किया जो उसके अनुसार डा. सेन के घर से मिला था. मज़े की बात है कि इस पत्र पर भी भेजने वाले के दस्तखत नहीं हैं. दूसरे, पुलिस ने इस पत्र का ज़िक्र उनके घर से प्राप्त वस्तुओं की लिस्ट में न तो चार्जशीट में किया था, न ”सर्च मेमों” में. घर से प्राप्त हर चीज़ पर पुलिस द्वारा डा. बिनायक के हस्ताक्षर लिए गए थे. लेकिन इस पत्र पर उनके दस्तखत भी नहीं हैं. ज़ाहिर है कि यह पत्र फर्ज़ी है. साक्ष्य के अभाव में पुलिस की बौखलाहट तब और हास्यास्पद हो उठी जब उसने पिछली 19 तारीख को डा.सेन की पत्नी इलिना सेन द्वारा वाल्टर फर्नांडीज़, पूर्व निदेशक, इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट ( आई.एस. आई.),को लिखे एक ई-मेल को पकिस्तानी आई.एस. आई. से जोडकर खुद को हंसी का पात्र बनाया. मुनव्वर राना का शेर याद आता है-
“बस इतनी बात पर उसने हमें बलवाई लिक्खा है
हमारे घर के बरतन पे आई.एस.आई लिक्खा है”
इस ई-मेल में लिखे एक जुमले ”चिम्पांज़ी इन द वाइटहाउस” की पुलिसिया व्याख्या में उसे कोडवर्ड बताया गया.( आखिर मेरे सहित तमाम लोग इतने दिनॉं से मानते ही रहे हैं कि ओंबामा से पहले वाइट हाउस में एक बडा चिंम्पांज़ी ही रहा करता था.) पुलिस की दयनीयता इस बात से भी ज़ाहिर है कि डा.सेन के घर से मिले एक दस्तावेज़ के आधार पर उन्हें शहरों में माओंवादी नेटवर्क फैलाने वाला बताया गया. यह दस्तावेज़ सर्वसुलभ है. यह दस्तावेज़ सुदीप चक्रवर्ती की पुस्तक, ”रेड सन- ट्रैवेल्स इन नक्सलाइट कंट्री” में परिशिष्ट के रूप में मौजूद है. कोई भी चाहे इसे देख सकता है. कुल मिलाकर अदालत में और बाहर भी पुलिस के एक एक झूठ का पर्दाफाश होता गया. लेकिन नतीजा क्या हुआ? अदालत में नतीजा वही हुआ जो आजकल आम बात है. भोपाल गैस कांड् पर अदालती फैसले को याद कीजिए. याद कीजिए अयोध्या पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को .क्या कारण हे कि बहुतेरे लोगों को तब बिलकुल आश्चर्य नहीं होता जब इस देश के सारे भ्रश्टाचारी, गुंडे, बदमाश , बलात्कारी टी.वी. पर यह कहते पाए जाते हैं कि वे न्यायपालिका का बहुत सम्मान करते हैं?
याद ये भी करना चाहिए कि भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह की धाराएं कब की हैं. राजद्रोह की धारा 124 -ए जिसमें डा. सेन को दोषी करार दिया गया है 1870 में लाई गई जिसके तहत सरकार के खिलाफ ”घृणा फैलाना”, ” अवमानना करना” और ” असंतोष पैदा”करना राजद्रोह है. क्या ऐसी सरकारें घृणित नहीं है जिनके अधीन 80 फीसदी हिंदुस्तानी 20 रुपए रोज़ पर गुज़ारा करते हैं? क्या ऐसी सरकारें अवमानना के काबिल नहीं जिनके मंत्रिमंडल राडिया, टाटा, अम्बानी, वीर संघवी, बर्खा दत्त और प्रभु चावला की बातचीत से निर्धारित होते हैं ? क्या ऐसी सरकारों के प्रति हम और आप असंतोष नहीं रखते जो आदिवसियों के खिलाफ ”सलवा जुडूम” चलाती हैं, बहुराश्ट्रीय कम्पनियों और अमरीका के हाथ इस देश की सम्पदा को दुहे जाने का रास्ता प्रशस्त करती हैं. अगर यही राजद्रोह की परिभाशा है जिसे गोरे अंग्रेजों ने बनाया था और काले अंग्रेजों ने कायम रखा, तो हममे से कम ही ऐसे बचेंगे जो राजद्रोही न हों . याद रहे कि इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लम्बे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा.
डा. बिनायक और उनकी शरीके-हयात इलीना सेन देश के उच्चतम शिक्षा संस्थानॉं से पढकर आज के छत्तीसगढ में आदिवसियों के जीवन में रच बस गए. बिनायक ने पी.यू.सी.एल के सचिव के बतौर छत्तीसगढ सरकार को फर्ज़ी मुठभेड़ों पर बेनकाब किया, सलवा-जुडूम की ज़्यादतियों पर घेरा, उन्होंने सवाल उठाया कि जो इलाके नक्सल प्रभावित नहीं हैं, वहां क्यों इतनी गरीबी,बेकारी, कुपोषण और भुखमरी है?. एक बच्चों के डाक्टर को इससे बडी तक्लीफ क्या हो सकती है कि वह अपने सामने नौनिहालों को तडपकर मरते देखे?
इस तक्लीफकुन बात के बीच एक रोचक बात यह है कि साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा.सेन के घर से कथित रूप से बरामद माओंवादियों की चिट्ठी में उन्हें ”कामरेड” संबोधित किए जाने पर कहा कि ”कामरेड उसी को कहा जाता है, जो माओंवादी होता है ”. तो आप में से जो भी कामरेड संबोधित किए जाते हों ( हों भले ही न), सावधान रहिए. कभी गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कबीर के सौ पदों का अनुवाद किया था. कबीर की पंक्ति थी, ”निसिदिन खेलत रही सखियन संग”. गुरुदेव ने अनुवाद किया, ”Day and night, I played with my comrades' मुझे इंतज़ार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल के लिए गुरुदेव या कबीर पर कब मुकदमा चलाया जाएगा?
अकारण नहीं है कि जिस छत्तीसगढ में कामरेड शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे कानून के दायरे से महफूज़ रहे, उसी छत्तीसगढ में नियोगी के ही एक देशभक्त, मानवतावादी, प्यारे और निर्दोष चिकित्सक शिष्य को उम्र कैद दी गई है. 1948 में शंकर शैलेंद्र ने लिखा था,

“भगतसिंह ! इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की !

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे--
बंब संब की छोड़ो, भाशण दिया कि पकड़े जाओगे !
निकला है कानून नया, चुटकी बजते बँध जाओगे,
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे,
कांग्रेस का हुक्म; जरूरत क्या वारंट तलाशी की ! “

ऊपर की पंक्तियों में ब़स कांग्रेस के साथ भाजपा और जोड़ लीजिए.
आश्चर्य है कि साक्ष्य होने पर भी कश्मीर में शोंपिया बलात्कार और हत्याकांड के दोषी, निर्दोष नौजवानॉं को आतंकवादी बताकर मार देने के दोषी सैनिक अधिकारी खुले घूम रहे हैं और अदालत उनका कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वे ए.एफ.एस. पी.ए. नामक कानून से संरक्षित हैं, जबकि साक्ष्य न होने पर भी डा. बिनायक को उम्र कैद मिलती है.
- मित्रों मैं यही चाहता हूं कि जहां जिस किस्म से हो , जितनी दूर तक हो हम डा. बिनायक सेन जैसे मानवरत्न के लिए आवाज़ उठाएं ताकि इस देश में लोग उस दूसरी गुलामी से सचेत हों जिसके खिलाफ नई आज़ादी के एक योद्धा हैं डा. बिनायक सेन.

Sunday, December 26, 2010

बिनायक सेन के लिए एक कविता

बिनायक सेन को सजा देने के कोर्ट के निर्णय के बाद दुनियाभर में उनके समर्थन में विभिन्न तरह की अभिव्यक्तियाँ हो रहीं हैं । पेश है बंगलुरु में रह रहे इलाहाबादी मृत्युंजय की ताजा कविता ....


बीर बिनायक


बीर बिनायक बांके दोस्त !
थको नहीं हम संग तुम्हारे
झेल दुखों को जनता के संग
कान्धा भिड़ता रहे हमेशा
यही भरोसा यही भरोसा
बज्र कठिन कमकर का सीना
मज्जा मांस और रकत पसीना
मिलकर चलो जेल से बोलें
जिनकी काटी गयीं जुबानें
उनके मुंह के ताले खोलें

साथी देखो यही राज है
यही काज है
लोकतंत्र का पूर्ण नाश है
लोकसभा और राज सभा
की नूतन अभिनव बक्क वास है
देखो इनके लेखे पूरा
देश एक मैदाने घास है

देशभक्ति का दंगल देखो
रमन सिंह के छत्तीसगढ़ में
चिदंबरम के राज काज में
वेदांता के रामराज में
उगा हुआ है जंगल देखो
नियमगिरी क़ी नरम खाल से
नोच रहे हैं अभरक देखो

देखो बड़ा नमूना देखो
कैसे लगता चूना देखो
भ्रष्ट ज़ज्ज़ और भ्रष्ट कलेक्टर
सबकुछ अन्दर सबकुछ अन्दर
चूस रहे हैं बीच बाज़ार
नंगे नंगे बीच सड़क पर
खुल्लम खुल्ला खोल खालकर
नाच रहे हैं
देशभक्ति का प्रहसन देखो
टेंसन देखो
अनशन देखो

राडिया वाला टेप देख लो
बरखा जी और बीर सांघवी
नई नवेली खेप देख लो
देखो मिस्टर मनमोहन को
जे पी सी अभिनन्दन देखो
ही ही ही ही दांत चियारे
देखो मिस्टर देशभक्त जी
कौन जगह अब पैसा डारें
घूम रहे हैं मारे मारे
कलमाडी क़ी काली हांडी
देखो
अडवाणी क़ी मूंछ देखो
येदुरप्पा क़ी पूँछ देखो
रेड्डी क़ी करतूत देखो
लोकतंत्र के पूत देखो
भूत देखो

पैसा देखो
भैंसा देखो
ऐसा देखो
वैसा देखो
लाइन से सब देशभक्त हैं
इससे पूरा देश त्रस्त है
देखो

नक्सल देखो
डी जी पी के कुशल दांत में लगा हुआ है बक्कल देखो
सलवा जुडूम बनाने वाले
रक्त काण्ड रचवाने वाले
जल जंगल जमीन के भीतर
महानाश रचवाने वाले
देखो नए दलाल देखो
टमाटरी हैं गाल देखो
पी एम सी एम हाउस भीतर
कोर्ट के भीतर कोर्ट के बाहर
हंडिया भीतर
काली काली दाल देखो
देखो रोज़ कमाल देखो

जान बचाने वाले
लाज रखाने वाले
लड़ भिड जाने वाले
सत्य बोलने वाले
देखो
नए नए है देश दुरोहित
नयी नयी परिभाषा देखो
शासन क़ी अभिलाषा देखो
भाषा देखो
जेल देखो
सेल देखो
खनिज लादकर छत्तीसगढ़ से जाने वाली रेल देखो
जनता के अधिकार देखो
ह्त्या का व्यापार देखो

घी में सनी अंगुलियाँ देखो
हीरे क़ी झिन्गुलिया देखो
बड़े चोर का घाव देखो
विपक्षी का ताव देखो
लगे फिटकरी जियें गडकरी
चेहरा देखो संग मरमरी
कांग्रेस के मंतर देखो
बन्दर देखो
अभी अभी बिल से निकला है जनपथ पर छछुन्दर देखो
माल देखो
ताल देखो
डेमोक्रेसी क़ी टटकी टटकी उतरी है यह खाल देखो

ज़ज्ज़ के घर में नेता बैठा नेता घर अखबार
प्रजातंत्र का विकसित होता नव नव कारोबार
बीर बिनायक तुम जैसों से ही बाकी है देश
भिड़ बैठेंगे आयें जितने बदल-बदल कर भेष

मृत्युंजय

Saturday, December 25, 2010

In support of Binayak Sen

Join


Citizens’ Protest


Against Travesty of Justice in Conviction of


Binayak Sen


Monday, 27 December,


2.30 pm,


Jantar Mantar


AISA, PUDR, PUCL, PUCL Delhi, Anhad, HRLN, Delhi Film Archive, JTSA, Delhi Solidarity Group, AIPWA, Saheli, CAVOW, Foundation for Media Professionals, Jan Sanskriti Manch, The Group, Arundhati Roy, Kamal Chenoy, Swami Agnivesh, Harsh Mandar and many other organizations and individuals

Contact Ravi (9868661628), Kavita (9560756628), Manisha (9811625577)


And Please sign Petition in support of Dr. Binayak Sen http://www.petitiononline.com/sen2010/petition.html




Wednesday, December 22, 2010

जफ़र पनाही की मुक्ति के अभियान में शामिल हों


प्रिय संस्कृति प्रेमी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यकीन रखने वाले मित्रों,
पिछली पोस्ट में आपने जफर पनाही पर हुए दमन की खबर पढ़ी थी. उस सन्दर्भ में पेश है एक मुहिम द्वारा प्रस्तुत online petition. इसमें आपकी सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा है ----
Dear freinds
Please sign this online petition (plus other useful contacts below):

http://www.petitiononline.com/FJP2310/petition.html

Those in India (Delhi, Mumbai) wanting to lodge their protest with the Iranian establishment, can use the following addresses:

Iran Culture Hosue
18, Tilak Marg, Opp. Supreme Court,
New Delhi 110002
Phone: +91-11-23383232
Fax: +91-11-23387547
Email: ichdelhi@iranhouseindia.com
Website: http://www.iran-embassy.org.in/

Embassy of Iran
5, Barakhamba Road,
New Delhi
Phone: +91-11-23329600
Email: info@iran-embassy.org.in

The Culture House of Islamic Republic of Iran in Mumbai
Director General : Mr. M. Mirzae
Tel.: +91 - 22 - 23806634
+91 - 22 - 23825760
Fax.: +91 - 22 - 23869675
E-Mail: ichmumbai@gmail.com
WEBSITE : http://mumbai.icro.ir

Mail to the President of Iran: http://cp.president.ir/en/

Also see below the international campaign for Jafar:

-----
Film stars urged to oppose Jafar Panahi imprisonment via online petition

European film organisations ask film-makers and actors to register protest against jailing of Iranian director

Iranian film director Jafar Panahi Iranian film director Jafar Panahi. Photograph: Stringer/Iran/Reuters

Film-makers and actors from around the globe are expected to sign a petition calling for the release of the dissident Iranian director Jafar Panahi. An Iranian court yesterday sentenced the 50-year-old to six years in prison, his lawyer said, and banned him from directing or producing films for 20 years.

Launched earlier today, the online petition claims that "Jafar is innocent and his only crime is wishing to continue to freely exercise his profession as a film-maker in Iran ... Through this sentence inflicted upon Jafar Panahi, it is manifestly all of Iranian cinema which is targeted."

The petition was drawn up by a group of European film organisations, including the Cannes film festival and the magazine Cahiers du Cinema. It invites signatures from writers, film-makers and actors, "as well as every man and woman who loves freedom and for whom human rights are fundamental".

Panahi, a critic of the Ahmadinejad regime who supported the protests that followed 2009's disputed Iranian elections, was convicted of "propaganda against the system". In his plea to the court, he said: "My imprisonment and that of those I work with symbolises the kidnapping by those in power of all artists in the country." Panahi will be jailed alongside another film-maker, Mohammad Rasoulof.

Panahi won the Camera d'Or award at the 1995 Cannes film festival for The White Balloon and the Golden Lion prize at the 2000 Venice festival for The Circle. His other pictures include Offside and Crimson Gold.

The director was initially arrested at his home in March, when he was accused of making an "anti-regime" documentary about the green uprising. His incarceration sparked protests from the likes of Martin Scorsese, Ang Lee and Steven Spielberg, while Juliette Binoche used the stage at last May's Cannes film festival to call for Panahi's release.


Tuesday, December 21, 2010

पहाड़ चढ़ता प्रतिरोध

प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का दूसरा नैनीताल फ़िल्म उत्सव पिछली 29 से 31 अक्टूबर को नैनीताल के शैले हाल में जन संस्कृति मंच के फ़िल्म समूह द ग्रुप और नैनीताल के मशहूर नाट्य ग्रुप युगमंच द्वारा सफलतापूर्वक आयोजित किया गया. इस आयोजन के बारे में युवा फ़िल्म समीक्षक और स्तंभकार मिहिर पंड्या का लेख. तस्वीरें सुदर्शन जुयाल और मेधा पांडे की हैं. इस लेख का एक संछिप्त पाठ हिंदी दैनिक जनसत्ता की 19 दिसंबर 2010 की रविवारीय पत्रिका में भी प्रकाशित हो चुका है. इस आयोजन के बारे में और जानकारी के लिए ज़हूर आलम (09412983164) और संजय जोशी (09811577426) से संपर्क किया जा सकता है. या फिर thegroup.jsm@gmail.com aur yugmanch.nainital@gmail.com पर संपर्क करें.





फ़िल्म उत्सव की स्मारिका का लोकार्पण

नैनीताल फ़िल्मोत्सव (29 से 31 अक्टूबर, 2010) के ठीक पिछले हफ़्ते मैं बम्बई में था, मुम्बई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (मामी) में. हम के युद्ध स्तर पर फ़िल्में सम्पन्न रहे थे. कई दोस्त बन गए थे जिनमें से बहुत सिनेमा बनाने के पेशे से ही किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे. जिसे भी बताता कि “यहाँ से निकलकर सीधा नैनीताल जाना है.” सवाल आता... क्यों? “क्योंकि वहाँ भी एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल है.” ..सुनने वाला भौंचक. नैनीताल में फ़िल्म समारोह.. ये कैसे? पूरी बात बताओ. और जान लिया तो फिर एक इत्मिनान की साँस.. बढ़िया. और फिर हर पुराने आदमी के पास एक कहानी होती सुनाने को. कहानी जिसमें भारत के हृदयस्थल में बसा कोई धूल-गुबार से सना कस्बा होता. कुछ जिगरी टाइप दोस्त होते, कस्बे का एक सिनेमाहाल होता और पिताजी की छड़ी होती. “भई हमारे ज़माने में ये ’क्वालिटी सिनेमा-विनेमा’ था तो लेकिन बड़े शहरों में. हमें तो अमिताभ की फ़िलम भी लड़-झगड़कर नसीब होती थी. पिताजी जब हमारी हरकतें देखते तो कहते लड़का हाथ से निकल गया..”

तब समझ आता है कि पांच साल पहले गोरखपुर से शुरु हुए फ़िल्मोत्सवों के इस क्रमबद्ध और प्रतिबद्ध आयोजन का कितना दूरगामी महत्व होनेवाला है. जन संस्कृति मंच के ’द ग्रुप’ के बैनर तले, ’प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम के साथ साल-दर-साल उत्तर भारत के विभिन्न छोटे-बड़े शहरों में आयोजित होते यह फ़िल्म समारोह सार्थक सिनेमा दिखाने के साथ-साथ उन शहरों के सांस्कृतिक परिदृश्य का भी महत्वपूर्ण हिस्सा बनते जा रहे हैं. बिना किसी कॉर्पोरेट मदद के आयोजित होने वाला यह अपनी तरह का अनूठा आयोजन है. इस मॉडल की सफ़लता से कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी हावी होती जा रही बाज़ार की ताक़तों से इतर एक विकल्प तैयार करने की कई नई राहें खुल रही हैं. इसीलिए कहना न होगा कि पिछले साल के सफ़ल आयोजन के बाद इस साल नैनीताल के लोग ’युगमंच’ तथा ’जसम’ द्वारा सम्मिलित रूप से आयोजित ’दूसरे नैनीताल फ़िल्म समारोह’ के इंतज़ार में थे. लोगों में सिनेमा को लेकर इस उत्सुकता को फिर से जगा देने के लिए ’द ग्रुप’ जन संस्कृति मंच और युगमंच बधाई के पात्र हैं. इन्हीं दोनों प्रतिबद्ध समूहों द्वारा आयोजित नैनीताल फ़िल्म समारोह सिर्फ़ फ़िल्मोत्सव न होकर अनेक प्रदर्शन-कलाओं से मिलकर बनता एक सांस्कृतिक कोलाज है. गिर्दा और निर्मल पांडे की याद को संजोये इस बार के आयोजन में भी कई विचारोत्तेजक वृत्तचित्रों और कुछ दुर्लभ फ़ीचर फ़िल्मों के साथ उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा पर जयमित्र बिष्ट के फ़ोटो-व्याख्यान ’त्रासदी की तस्वीरें’, ’युगमंच’ द्वारा जनगीतों की प्रस्तुति और बच्चों द्वारा खेला गया नाटक ’अक़्ल बड़ी या शेर’ भी शामिल थे.


इस बार नैनीताल आए डॉक्यूमेंट्री सिनेमा के गुल्दस्ते में शामिल कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्में थीं सूर्य शंकर दाश की ’नियमराजा का विलाप’, अजय टी. जी. की ’अंधेरे से पहले’, देबरंजन सारंगी की ’फ़्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व’, अजय भारद्वाज की ’कित्ते मिल वे माही’, अनुपमा श्रीनिवासन की ’आई वंडर’ तथा संजय काक की ’जश्न-ए-आज़ादी’. इसके अलावा वृत्तचित्र निर्देशक वसुधा जोशी पर विशेष फ़ोकस के तहत उनकी तीन फ़िल्मों, ’अल्मोड़ियाना’, ’फ़ॉर माया’ तथा ’वायसेस फ़्रॉम बलियापाल का प्रदर्शन समारोह में किया गया. शानदार बात यह रही कि ज़्यादातर फ़िल्मों के साथ उनके निर्देशक खुद समारोह में उपस्थित थे. फ़िल्मकारों के बीच का आपसी संवाद और दर्शकों से उनकी बातचीत फ़िल्म को कहीं आगे ले जाती हैं. इससे देखनेवाला खुद उन फ़िल्मों में, उनमें कही बातों में, उसके तमाम किरदारों के साथ एक पक्ष की तरह से शामिल होता है और उन परिस्थितियों से संवाद करता है. बीते सालों में यही ख़ासियत इन फ़िल्मोत्सवों की सबसे बड़ी उपलब्धि बनकर उभर रही है.


मुख्यधारा सिनेमा द्वारा बेदखल की गई दो दुर्लभ फ़ीचर फ़िल्मों का यहाँ प्रदर्शन हुआ. परेश कामदार की ’खरगोश’ तथा बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’. इनमें बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’ पर यहाँ लिखना ज़रूरी है. क्योंकि एक अनचाहे संयोग के तहत जिस दिन फ़िल्म को नैनीताल में दिखाया और पसंद किया जा रहा था ठीक उसी दिन यह फ़िल्म सिर्फ़ दो महानगरों के कुछ गिने हुए सिनेमाघरों में रिलीज़ हो ’बॉक्स ऑफ़िस’ पर अकाल मृत्यु के गर्भ में समा गई. कई बार फ़िल्म उसकी मुख्य कथा में नहीं होती. उसे आप उन अन्तरालों में पाते हैं जिनके सर मुख्य कथा को ’दाएं या बाएं’ भटकाने का इल्ज़ाम है. ठीक ऐसे ही बेला नेगी की फ़िल्म में बस की खिड़की पर बैठी एक विवाहिता आती है. दो बार. पहली बार सपने की शुरुआत है तो दूसरी बार इस प्रसंग के साथ मुख्य कथा वापिस अपनी ज़मीन पकड़ती है. परदे पर इस पूरे प्रसंग की कुल लम्बाई शायद डेढ़-दो मिनट की होगी. इन्हीं दो मिनट में निर्देशक ऐसा अद्भुत कथा कोलाज रचती हैं कि उसके आगे हिन्दी सिनेमा की तमाम पारंपरिक लम्बाइयाँ ध्वस्त हैं. खांटी उत्तराखंडी आबो-हवा अपने भीतर समेटे इस फ़िल्म को नैनीताल फ़िल्मोत्सव के मार्फ़त उसके घर में दर्शकों ने देखा, मानो फ़िल्म अपनी सही जगह पहुँच गई.


मल्लीताल के मुख्य बाज़ार से थोड़ा सा ऊपर बनी शाही इमारत ’नैनीताल क्लब’ की तलहटी में कुर्सियाँ फ़ैलाकर बैठे, बतियाते संजय काक ने मुझे बताया कि संजय जोशी अपने साथ विदेशी फ़िल्मों की साठ से ज़्यादा कॉपी लाए थे, ज़्यादातर ईरानी सिनेमा. सब की सब पहले ही दिन बिक गईं. शायद यह सुबह दिखाई ईरानी फ़िल्म ’टर्टल्स कैन फ़्लाई’ का असर था. संजय ने खुद कहा कि लोग न सिर्फ़ फ़िल्में देख रहे हैं बल्कि पसन्द आने पर उन्हें खरीदकर भी ले जा रहे हैं. इस बार फ़ेस्टिवल में वृत्तचित्रों की बिक्री भी दुगुनी हो गई है. उस रात पहाड़ से उतरते हुए मेरे मन में बहुत अच्छे अच्छे ख्याल आते हैं. नैनीताल से पहाड़ शुरु होता है. नैनीताल फ़िल्मोत्सव के साथी सार्थक सिनेमा को पहाड़ के दरवाज़े तक ले आए हैं. और अब नैनीताल से सिनेमा को और ऊपर, कुछ और ऊँचाई पर इसके नए-नए दर्शक ले जा रहे हैं. पहाड़ की तेज़ और तीख़ी ढलानों पर जहाँ कुछ भी नहीं ठहरता सिनेमा न सिर्फ़ ठहर रहा है बल्कि अपनी जड़ें भी जमा रहा है, गहरे.

मशहूर इरानी फ़िल्मकार जफ़र पनाही पर दमन



मशहूर इरानी फ़िल्मकार जफ़र पनाही कोउनके मुखर राजनीतिक विरोध के चलते छहसाल की कैद की सजा सुनायी गयी है. यहीनहीं उनपर अगले बीस साल तक किसी भीतरह की अभिव्यक्ति की भी पाबंदी है. दुनियाभर की सत्ताएँ अपने कलाकारों के साथ दमनके नए नए तरीके लागू कर रही हैं. सारीदुनिया में इरानी सरकार की आलोचना होरही है. पेश है इस सिलसिले में एक रपट- -





Jafar Panahi Sentenced to 6 Years in Jail, 20 Years of Silence

Shocking and terrible news from Tehran today. Farideh Gheirat, a
lawyer representing several of the politicians, journalists and
artists detained during the protests that immediately followed the
disputed 2009 Iranian presidential election, has told the ISNA news
agency (as reported by Reuters and the AFP) that Jafar Panahi has been
sentenced to six years in jail and that his "social rights," including
"making movies, writing scripts, foreign travel and giving interviews
to domestic and foreign media, have been taken away for 20 years."

"Panahi, an outspoken supporter of Iran's opposition green movement,
was convicted of gathering, colluding and propaganda against the
regime," reports Saeed Kamali Dehghan. "Hamid Dabashi, a professor of
Iranian studies at Columbia university, told the Guardian the sentence
showed Iran's leaders could not tolerate the arts. 'This is a
catastrophe for Iran's cinema,' he said. 'Panahi is now exactly in the
most creative phase of his life and by silencing him at this sensitive
time, they are killing his art and talent. Iran is sending a clear
message by this sentence that they don't have any tolerance and can't
bear arts, philosophy or anything like that. This is a sentence
against the whole culture of Iran. They want the artists to sit at
their houses and stop creating art. This is a catastrophe for a whole
nation."

Gheirat has announced that she will appeal this decision, so we do
have some hope that this incredibly harsh sentence will not stand.
Panahi was one of several mourners who'd gathered near the grave of
Neda Agha-Soltan in a Tehran cemetery who were arrested in July 2009.
So, too, was filmmaker Muhammad Rasoulof, who has also been sentenced
to six years today. When Panahi was released that summer, his passport
was revoked and he was forbidden to leave the country. In March of
this year, he was arrested again because, as the Iranian culture
minister put it, he "was making a film against the regime and it was
about the events that followed election." Throughout the ordeal,
prominent filmmakers, film societies and festivals formally protested
Panahi's detainment, and finally, in May, he was released on bail.

The speech he delivered during his hearing in November has been widely
cited and quoted, and you can read it in full at Current Conflicts.
Here's just a bit: "You are putting me on trial for making a film
that, at the time of our arrest, was only 30 percent shot. You must
have heard that the famous creed, 'There is no god, except Allah,'
turns into blasphemy if you only say the first part and omit the
second part. In the same vein, how can you establish that a crime has
been committed by looking at 30 percent of the rushes for a film that
has not been edited yet?... I, Jafar Panahi, declare once again that I
am an Iranian, I am staying in my country and I like to work in my own
country. I love my country, I have paid a price for this love too, and
I am willing to pay again if necessary. I have yet another declaration
to add to the first one. As shown in my films, I declare that I
believe in the right of 'the other' to be different, I believe in
mutual understanding and respect, as well as in tolerance; the
tolerance that forbid me from judgment and hatred. I don't hate
anybody, not even my interrogators."

Earlier this month, TIFF Cinematheque ran a retrospective of Panahi's
work: "With five critically acclaimed and copiously awarded features
to his name, Panahi is one of the major figures of the New Iranian
cinema; once the prot to Abbas Kiarostami, Panahi has forged a
style and path all is own. His cohesive body of work owes much to
Italian neo-realism, with his documentary style and preference for
mostly non-professional actors, and a fierce belief in human and
social rights."

One of the films screened was The Accordian, a short that's Panahi's
contribution to Then and Now: Beyond Borders and Differences, an
omnibus film supported by the United Nations; the film premiered at
the Venice Film Festival in September. Panahi: "The Accordion is the
story of humankind materialistic need to survive in a pretentious
religion. In it, a boy is prevented from playing for reasons of
religious prohibition, which he accepts in order to survive. But the
main character of the film is the girl or, perhaps, in my view, the
symbol of the next generation."

Thursday, December 9, 2010

प्रतिरोध का सिनेमा का दूसरा पटना फ़िल्म उत्सव

जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव का विवेक है सिनेमा
शाजी एन. करुन
दूसरे पटना फ़िल्म उत्सव में उदघाटन वक्तव्य देते हुए शाजी एन करून


‘सिनेमा मनुष्य के कला के साथ अंतर्संबंध का दृश्य रूप है। मनुष्य के जीवन में जो सुंदर है उसके चुनाव के विवेक का नाम सिनेमा है। चीजों, घटनाओं या परिस्थितियों और सही-गलत मूल्यों की गहरी समझदारी, बोध और ज्ञान से ही यह विवेक निर्मित होता है। हम जिस यथार्थ को देख सकते हैं या देखना चाहते हैं, कला उसे ही सामने रखती है।’ प्रसिद्ध फ़िल्मकार शाजी एन करुन ने जसम-हिरावल द्वारा कालिदास रंगालय में आयोजित त्रिदिवसीय पटना फ़िल्मोत्सव - प्रतिरोध का सिनेमा का उद्घाटन करते हुए कला और यथार्थ के रिश्ते पर एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया।

उद्घाटन से पूर्व मीडियाकर्मियों से एक मुलाकात में फ़िल्मोत्सव के मुख्य अतिथि शाजी एन. करुन ने कहा कि सिनेमा हमारी स्मृतियों को उसके सामाजिक आशय के साथ दर्ज करता है। सिनेमा अपने आप में एक बड़ा दर्शन है। लेकिन हमारे यहां इसका सार्थक इस्तेमाल कम हो हो रहा है। हमारे देश में करीब 1000 फिल्में बनती हैं लेकिन दुनिया के फ़िल्म समारोहों में चीन, वियतनाम, कोरिया, मलेशिया और कई छोटे-छोटे देशों की फ़िल्में हमसे ज्यादा दिखाई पड़ती हैं, इसलिए कि वे उन देशों के जीवन यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं और उन्हें सिर्फ मुनाफे के लिए नहीं बनाया जाता।

शाजी एन करून
अपनी फ़िल्म कुट्टी स्रांक के लिए श्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय सम्मान पाने वाले शाजी एन. करुन ने कहा कि आस्कर
अवार्ड वाली फ़िल्में पूरी दुनिया में दिखाई जाती हैं, जबकि नेशनल अवार्ड पाने वाली फ़िल्में इस देश में ही दिखाई नहीं जातीं। अब तक वे छह बड़ी फ़िल्में बना चुके हैं और उनके लिए यह पहला मौका है कि बिहार में जनता के प्रयासों से हो रहे फ़िल्मोत्सव में उनकी एक फ़िल्म दिखाई जा रही है। इस तरह के प्रयास राख में दबी हुई चिंगारी को सुलगाने की तरह हैं। शाजी ने कहा कि आर्थिक समृद्धि से भी कई गुना ज्यादा जरूरी सांस्कृतिक समृद्धि है। आज किसी भी आदमी को अपनी दस यादें बताने को कहा जाए तो वह कम से कम एक अच्छी फ़िल्म का नाम लेगा। लेकिन बालीवुड की मुनाफा वाली फ़िल्मों और टेलीविजन में जिस तरह के कार्यक्रमों की भीड़ है, उसके जरिए कोई सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं हो सकता। आज जरूरत है कि सिनेमा को सामाजिक बदलाव के माध्यम के बतौर इस्तेमाल किया जाए।

इस दौरान प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने बताया कि यह आयोजन देश में इस तरह का 16वां आयोजन है, जो बगैर किसी बडे़ पूंजीपति, सरकार या कारपोरेट सेक्टर की मदद के हो रहा है। फ़िल्मोत्सव स्वागत समिति की अध्यक्ष ‘सबलोग’ की संपादक मीरा मिश्रा ने कहा कि आज समाज के हर क्षेत्र में अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध की जरूरत है। प्रतिरोध का सिनेमा इसी लक्ष्य से प्रेरित है।

उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष सुप्रसिद्ध कवि आलोकधन्वा ने
कहा कि बहुमत हमेशा लोकतंत्र का सूचक नहीं होता, कई बार वह लोकतंत्र का अपहरण करके भी आता है।कला की दुनिया जिन बारीक लोकतांत्रिक संवेदनाओं के पक्ष में खड़ी होती है,कई बार वह बड़ी उम्मीद को जन्म देती है। हमारे भीतर लोकतांत्रिक मूल्यों को पैदा करने में विश्व और देश की क्लासिक फ़िल्मों ने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। इस वक्त अंधेरा बहुत घना है। इस अंधेरे वक्त में जनभागीदारी वाले ऐसे आयोजन उजाले की तरह हैं।
वास्तविक लोकतंत्र के लिए वामपंथ का जो संघर्ष है,
उससे अलग करके इस आयोजन को नहीं देखा जा सकता।


इस मौके पर इतिहास की प्रोफेसर डा. भारती एस कुमार ने शाजी एन. करुन को गुलदस्ता भेंट किया। डा. सत्यजीत ने फ़िल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र के आखिर में कवि गोरख पांडेय की स्मृति में लिखे गए दिनेश कुमार शुक्ल के गीत ‘जाग मेरे मन मछंदर’ को हिरावल के कलाकारों ने गाया। मंच पर अर्थशास्त्री प्रो. नवल किशोर चैधरी, अरुण कुमार सिंह, पत्रकार अग्निपुष्प और कथाकार अशोक भी मौजूद थे।

हिरावल द्वारा ‘जाग मेरे मन मछंदर’ की प्रस्तुति

दूसरे सत्र में शाजी एन. करुन की फिल्म कुट्टी स्रांक दिखाई गई। यह एक केरल के एक ऐसे नाविक की कहानी है जिसके जीवन का एकमात्र शौक चिविट्टु नाटकम (म्यूजिकल ड्रामा) है। उसका काम और उसका गुस्सैल स्वभाव उसे एक जगह टिकने नहीं देता। मनुष्य के सच्चे व्यवहार और सच्चे प्रेम के लिए उसकी अंतहीन प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है वह। उसकी मृत्यु के बाद उसकी प्रेमिकाओं के जरिए उसका व्यक्तित्व खुलता है। फ़िल्म प्रदर्शन के बाद शाजी एन. करुन के साथ दर्शकों का विचारोत्तेजक संवाद हुआ।

दूसरे दिन फ़िल्म प्रदर्शन की शुरुआत अपनी मौलिक कथा के लिए आस्कर अवार्ड से नवाजी गई फ्रांसीसी फ़िल्म ‘दी रेड बलून’ से हुई। लेखक और निर्देशक अल्बर्ट लामोरेस्सी की इस फ़िल्म में बेहद कम संवाद थे। इसमें पास्कल नाम के बच्चे और उसके लाल गुब्बारे की कहानी है। गुब्बारा पास्कल के स्व से जुड़ा हुआ है। उस गुब्बारे को पाने और नष्ट कर देने के लिए दूसरे बच्चे लगातार कोशिश करते हैं। इस फ़िल्म को देखना अपने आप में बच्चों की फैंटेसी की दुनिया में दाखिल होने की तरह था। दूसरी फ़िल्म संकल्प मेश्राम निर्देशित ‘छुटकन की महाभारत’ थी। इस फिल्म में जब गांव में नौटंकी आती है तो उससे प्रभावित छुटकन सपना देखता है कि शकुनी मामा और दुर्योधन का हृदय परिवर्तन हो गया है और वे राज्य पर अपना दावा छोड़ देते हैं।
फ़िल्मोत्सव के दूसरे दिन दिखाई गई दो फ़िल्में अलग-अलग संदर्भों में धर्म और मनुष्य के रिश्ते की पड़ताल करती प्रतीत हुईं। राजनीति धर्म को किस तरह बर्बर और हिंसक बनाती है यह नजर आया उड़ीसा के कंधमाल के आदिवासी ईसाईयों पर हिंदुत्ववादियों के बर्बर हमलों पर बनाई गई फ़िल्म ‘फ्राम हिंदू टू हिंदुत्व’ में। उड़ीसा सरकार के अनुसार इन हमलों में 38 लोगों की जान गई थी, 3 लापता हुए थे, 3226 घर तहस-नहस कर दिए गए थे और 195 चर्च और पूजा घरों को नष्ट कर दिया गया था। 25,122 लोगों को राहत कैंपों में शरण लेना पड़ा और हजारों लोग जो उड़ीसा और भारत के अन्य इलाकों में पलायन कर गए, उनकी संख्या का कोई हिसाब नहीं है। बाबरी मस्जिद ध्वंस की पूर्व संध्या पर दिखाई गई इस फ़िल्म से न केवल कंधमाल के ईसाईयों की व्यथा का इजहार हुआ, बल्कि भाजपा-आरएसएस की सांप्रदायिक घृणा और हिंसा पर आधरित राजनीति का प्रतिवाद भी हुआ।

सहिष्णु कहलाने वाले हिंदू धर्म के स्वघोषित ठेकेदारों के हिंसक कुकृत्य के बिल्कुल ही विपरीत पश्चिम बंगाल के मुस्लिम फकीरों पर केंद्रित अमिताभ चक्रवर्ती निर्देशित फ़िल्म ‘बिशार ब्लूज’ में धर्म का एक लोकतांत्रिक और मानवीय चेहरा नजर आया। ये मुस्लिम फकीर- अल्लाह, मोहम्मद, कुरान, पैगंबर- सबको मानते हैं। लेकिन इनके बीच के रिश्ते को लेकर उनकी स्वतंत्र व्याख्या है। इन फकीरों के मुताबिक खुद को जानना ही खुदा को जानना है।

पहाड़ को काटकर राह बना देने वाले धुन के पक्के दशरथ मांझी पर बनाई गई फ़िल्म ‘दी मैन हू मूव्ड दी मांउटेन’ इस फ़िल्मोत्सव का आकर्षण थी। युवा निर्देशक कुमुद रंजन ने एक तरह से उस आस्था को अपने समय के एक जीवित संदर्भ के साथ दस्तावेजीकृत किया है कि मनुष्य अगर ठान ले तो वह कुछ भी कर सकता है। जिस ताकत की पूंजी और सुविधाओं पर काबिज वर्ग हमेशा अपनी प्रभुता के मद में उपेक्षा करता है या उपहास उड़ाता है, गरीब और पिछड़े हुए समाज और बिहार राज्य में अंतर्निहित उस ताकत के प्रतीक थे बाबा दशरथ मांझी। अकारण नहीं है कि इस फ़िल्म के निर्देशक को बाबा दशरथ मांझी से मिलकर कबीर से मिलने का अहसास हुआ।

सुमित पुरोहित निर्देशित फिल्म ‘आई वोक अप वन मार्निंग एंड फाउंड माईसेल्फ फेमस’ पूंजी की संस्कृति द्वारा मनुष्य को बर्बर और आदमखोर बनाए जाने की नृशंस प्रक्रिया को न केवल दर्ज करने, बल्कि उसका प्रतिरोध का भी एक प्रयास लगी। सुमित पुरोहित ने कालेज में अपने जूनियर दीपंकर की आत्महत्या और उस आत्महत्या को हैंडी-कैमरे में शूट करने वाले उसके बैचमेट अमिताभ पांडेय और उस दृश्य को बेचने वाली मीडिया के प्रसंग को अपनी फ़िल्म का विषय बनाया है। अमिताभ चूंकि शक्तिशाली घराने से ताल्लुक रखता था, जिसके कारण इस मामले को दबाने की कोशिश की गई, लेकिन चार वर्ष बाद सुमित और अन्य छात्रों ने उन तथ्यों को सामने लाने का फैसला किया, जिसकी प्रक्रिया में यह फ़िल्म भी बनी। इस फ़िल्म के सन्दर्भ में सबसे चौंकाने वाला तथ्य फ़िल्म के आख्रिर में स्क्रीन पर लिखे वक्तव्यों से पता चलता है. डाक्यूमेंटरी जैसे सरंचना वाली यह फ़िल्म वास्तव में एक कपोल कल्पना थी जिसका मकसद टी वी के सबकुछ देख लेने और कैद कर लेने पर अपनी टिप्पणी करना था.

अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा
पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग क्यों अपने अस्तित्व की रक्षा के नाम
पर सुविधाओं के भीषण होड़ में लगा पूरा समाज, खासकर मध्यवर्ग
क्यों संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय
हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक
‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुती नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में मानवेंद्र त्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का, जहां मनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।संवेदनहीन होता जा रहा है, क्यों वह मूल्यहीन और अमानवीय हो रहा है, युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन निर्देशित नाटक ‘समझौता’ ने इसका जवाब तलाशने को प्रेरित किया। आहुति नाट्य एकाडमी, बेगूसराय की इस नाट्य प्रस्तुति में मानवेंद्र त्रिपाठी ने अविस्मरणीय एकल अभिनय किया। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित इस नाटक में मूल कहानी के भीतर एक रूपक चलता है सर्कस का, जहां मनुष्य ही शेर और रीछ बने हुए हैं। पशु की भूमिका में रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत ही यातनापूर्ण और अपमानजनक है, जिसके खिलाफ एक आत्मसंघर्ष नायक के भीतर चलता है। नायक को लगता है कि उसकी सर्विस और सर्कस में कोई फर्क नहीं है। नाट्य रूपांतरण सुमन कुमार ने किया था। संगीत परिकल्पना संजय उपाध्याय की थी। संगीत संयोजन अवधेश पासवान का था और गायन में भैरव, चंदन वत्स, आशुतोष कुमार, मोहित मोहन, पंकज गौतम थे। मुक्तिबोध की इस कहानी के बारे में परिचय सुधीर सुमन ने दिया।
फ़िल्मोत्सव के समापन के रोज दर्शकों ने चार महिला फ़िल्मकारों की फ़िल्मों का अवलोकन किया। महिला दिवस के शताब्दी वर्ष के अवसर पर प्रदर्शित ये फ़िल्में समाज की सचेतन महिला दृष्टि के गहरे सरोकारों की बानगी थीं।

इन फ़िल्मों के कथ्य और उसकी प्रस्तुति से दर्शक गहरे प्रभावित नजर आए। अनुपमा श्रीनिवासन निर्देशित
फ़िल्म ‘आई वंडर’ राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडु के ग्रामीण बच्चों के स्कूल, घर और उनकी जिंदगी को केंद्र में रखकर बनाई गई है। फ़िल्म ने कई गंभीर सवाल खड़े किए, जैसे कि इन बच्चों के लिए स्कूल का मतलब क्या है? बच्चे स्कूल में और उसके बाहर आखिर सीख क्या रहे हैं? इन बच्चों के रोजमर्रा के अनुभवों के जरिए इस फ़िल्म ने दर्शकों को यह सोचने के लिए बाध्य किया कि शिक्षा है क्या और उसे कैसी होनी चाहिए। अनुपमा इस मौके पर फेस्टिवल में मौजूद थीं, उनसे दर्शकों ने शिक्षा पद्धति को लेकर कई सवाल किए
दीपा भाटिया निर्देशित फ़िल्म ‘नीरो’ज गेस्ट’ किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित थी। दीपा ने सुदूर गांव के गरीब-मेहनतकश किसानों से लेकर बड़े-बड़े सेमिनारों में बोलते देश के मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ को अपने कैमरे में उतारा है। पिछले 10 सालों में लगभग 2 लाख किसानों की आत्महत्या के वजहों की शिनाख्त करती यह फिल्म एक जरूरी राजनैतिक हस्तक्षेप की तरह लगी।

पूना फिल्म इंस्टिट्यूट से फ़िल्म संपादन में प्रशिक्षित बेला नेगी की पहली फ़िल्म ‘दाएं या बाएं’ में ग्रामीण संस्कृति पर पड़ते बाजारवाद के प्रभावों को चित्रित किया गया था। पूंजीवादी-बाजारवादी संस्कृति ने जिन प्रलोभनों और जरूरतों को पैदा किया है, उनको बड़े ही मनोरंजक अंदाज में इस फ़िल्म ने निरर्थक साबित किया।

‘दी अदर सांग’ भारतीय शास्त्रीय संगीत और गायिकी की उस परंपरा को बड़ी खूबसूरती से दस्तावेजीकृत करने वाली फ़िल्म थी, जिसको उन ठुमरी गायिकाओं ने समृद्ध बनाया था, जो पेशे से तवायफ थीं। फ़िल्म निर्देशिका सबा दीवान ने तीन साल तक तवायफों की जीवन शैली और उनकी कला पर गहन शोध करके यह फ़िल्म बनाई है। इस फ़िल्म ने दर्शकों को रसूलनबाई समेत कई मशहूर ठुमरी गायिकाओं के जीवन और गायिकी से तो रूबरू करवाया ही, लागत करेजवा में चोट गीत के मूल वर्जन ‘लागत जोबनवा में चोट’ के जरिए शास्त्रीय गायिकी में अभिजात्य और सामान्य के बीच के सौंदर्यबोध और मूल्य संबधी द्वंद्व को भी चिह्नित किया। अभिजात्य हिंदू शास्त्रीय संगीत परंपरा के बरअक्स इन गायिकाओं की परंपरा को जनगायिकी की परंपरा के बतौर देखने के अतिरिक्त इस फिल्म में व्यक्त महिलावादी नजरिया भी इसकी खासियत थी। लोगों ने बेहद मंत्रमुग्ध होकर इस फ़िल्म को देखा।

म्यूजिक वीडियो जिन सामाजिक प्रवृत्तियों और वैचारिक या व्यावसायिक आग्रहों से बनते रहे हैं, तरुण भारतीय और के. मार्क स्वेर द्वारा तैयार किये गए म्यूजिक वीडियो के संकलन ‘हम देखेंगे’ उसको समझने की एक कोशिश थी।

इस मौके पर जसम, बिहार के राज्य सचिव संतोष झा ने कलाकारों और दर्शकों से अपील की, कि वे जनता से जुड़े बुनियादी मुद्दों, उसकी लोकतांत्रिक आकांक्षा और उसके बेहद जरूरी प्रतिरोधों को दर्ज करें और 10-15 मिनट के लघु फ़िल्म के रूप में निर्मित करके अगस्त, 20111 तक फेस्टिवल के संयोजक के पास भेज दें, जो फ़िल्में चुनी जाएंगी, उनका प्रदर्शन अगले फ़िल्म फेस्टिवल में किया जाएगा। समापन वक्तव्य कवि आलोकधन्वा ने दिया।

फ़िल्म फेस्टिवल में गोरखपुर फ़िल्म सोसाइटी और समकालीन जनमत की ओर से किताबों, कविता पोस्टरों और फ़िल्मों की डीवीडी का स्टाल भी लगाया गया था। प्रेक्षागृह के बाहर राधिका-अर्जुन द्वारा बनाए गए कविता पोस्टर लगाए गए थे, जो फ़िल्मोत्सव का आकर्षण बने हुए थे। इस अवसर पर शताब्दी वर्ष वाले कवियों की कविताओं पर आधारित सारे छोटे पोस्टर पटना के साहित्य-संस्कृतिप्रेमियों ने खरीद लिए। किताबों और फ़िल्मों की डीवीडी की भी अच्छी मांग देखी गई। पूरे आयोजन का संचालन संतोष झा और संजय जोशी ने किया। उनके साथ विभिन्न फ़िल्मों और निर्देशकों का परिचय डा. भारती एस. कुमार, के.के. पांडेय और सुमन कुमार ने दिया।

-सुधीर सुमन


Thursday, December 2, 2010

2nd Patna Film Festival

Cinema of Resistance

2nd Patna Film Festival

Kalidas Rangalaya, Gandhi Maidan, Patna

Day One December 4, 2010 Saturday

5 pm 20 min/ Screening of G Arvindam

2000/ 19 min/English/ Shaji N Karun

5.25 pm 130 min Screening of KUTTY SRANK

2009/130 min/Malayalam with English subtitles/Shaji N Karun

7.25 pm 30 min Interaction with the Director

Day Two Sunday December 5, 2010

12.05 pm 34 min Screening of RED BALLOON

1956/34 min/Color/Albert Lamoressi

12.45 pm 87 min Screening of CHHUTKAN KI MAHABHARAT

2004/87 min/Color/Sankalp Meshram

2.20 pm 25 min Screeing of I WOKE UP ONE MORNING AND FOUND

MYSELF FAMOUS (2010/25 min/Color/Sumit Purohit)

3.05 pm 79 min Screening of BISHAAR BLUES

2006/79 min/Color/Amitabh Chakraborty

4.30 min 26 min Screening of THE MAN WHO MOVED THE MOUNTAIN

2010/26 min/Color/Hindi with English subtitles/Kumud Ranjan

5.15 pm 30 min HUM DEKHENGE

2010/100 min/Color & B/W/Mix Language/Tarun Bhartiya &

K Mark Swer

6.05 pm 42 min Screening of HINDU TO HINDUTVA

2010/42 min/Color/Oriya with HST/Debranjan Sarangi

7 pm 75 min SAMJHAUTA (PLAY)

Writer – Muktibodh, Director – Praveen Gunjan

Day Three Monday December 6, 2010

12.05 pm 120 min Screening of THE OTHER SONG

2009/120 min/Color/Hindi, Urdu, English with EST/Saba Deewan

2.40 pm 60 min Screening of HUM DEKHENGE

2010/100 min/Color & B/W/Mix Language/Tarun Bhartiya &

K Mark Swer

3.45 pm 55 min Screening of NERO'S GUEST

2009/55 min/Color/Deepa Bhatia

4.45 pm 70 min Screening of I WONDER 2009/70 min/ Anupama Srinivasan

5.55 pm/20 min/ Interaction with the Director

6.25 pm 115 min Screening of DAAYAN YA BAAYEN

2010/115 min/Color/Hindi/Bela Negi

8.20 pm 15 min CLOSING CEREMONY

Organised by Hirawal and The Group, Jan Sanskriti Manch

Contact: Santosh Jha, Convener Hirawal,

Madandahri Bhawan, 2nd Floor, SP Verma Road, Patna-800001

Email: hirawal@hgmail.com, thegroup.jsm@gmail.com

Phone:9334071886,9852974559, 9334454280, 09811577426