फ़िल्मों में बिखरी प्रतिरोध की चेतना को प्रतिरोध की कारगर शक्ति बनाने का सांस्कृतिक अभियान
Saturday, November 5, 2011
सिनेमा की जमती जमीन - प्रतिरोध का सिनेमा का तीसरा नैनीताल फिल्म फेस्टिवल
तीसरे फिल्मोत्सव के ब्यौरों में जाने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक सांस्कृतिक आंदोलन है जिसके अंतर्गत सृजन की सभी विधायें, कला के सभी रूप और संस्कृति के सभी पक्ष वस्तुगत चिन्तन के धरातल पर देश-दुनिया-समाजों को उन्नत, मुक्त और मानवीय गरिमा प्रदान करने के लिये संघर्षरत है। कोई भी संघर्ष बिना प्रतिरोध के संभव नहीं और कोई भी प्रतिरोध बिना विचार के आगे नहीं बढ़ सकता। आज हम जिस दौर में हैं वह तथाकथित रूप से भूमंडलीकरण और वास्तविक रूप से साम्राजी पूंजी के दानवी तंत्र के शिकंजे में कसा हुआ है। कला सृजन की आधुनिकतम विधा सिनेमा और संचार के संजाल ने जहा कारपोरेट सत्ताओं की शोषण लूट की राजनीति को मजबूत किया है वहीं आमजन समाज को भी एक हथियार के रूप में सिने माध्यम को अनुकूल बनाया है। यह अपनी तरह की बिल्कुल नयी जद्दोजहद है। इसी जदोजहद के चलते सिने माध्यम प्रतिरोध के सिनेमा के केन्द्रीय औजार बन पाये हैं। पिछले एक दशक के भीतर जन संस्कृति मंच ने गोरखपुर शहर को केन्द्र बनाकर पूरे उत्तर भारत के 22-25 छोटे-बड़े शहरों में प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन के जरिये प्रतिरोध की राजनीति और प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने में अग्रगति पायी है। इसी का एक पड़ाव उत्तराखंड का नैनीताल शहर भी है। जहां के आयोजन का ब्यौरा आपके समक्ष है।
पहले दिन यानि उद्घाटन के अवसर पर अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल ने अपने वक्तव्य में अर्थपूर्ण विचार व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि आधुनिकतम कला विधा सिनेमा और सबसे प्राचीन विधा कविता में कामन तत्व हैं कि दोनों बिम्बों के माध्यम से सृजित होते हैं और करोड़ों बिम्बों में से एक को चुनकर उसे आकार देना पड़ता है। उद्घाटन में मुख्य अतिथि के रूप में विश्व मोहन बडोला ने फिल्म फेस्टिवल के मकसद को तो सराहा ही और सलाह भी दी कि राज्य के अन्य शहरों में भी अपरिहार्य रूप से इसकी शुरूआत होनी चाहिये। बडोला जी की यह शिकायत थी कि उत्तराखंड सरकार की कोई नीति नहीं है लिहाजा प्रतिरोध का सिनेमा एक सशक्त दबाव बना सकेगा और उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को संवारने का कार्य भी संभव होगा।
‘
प्रतिरोध का सिनेमा’ का राष्ट्रीय अभियान के संयोजक संजय जोशी और जन संस्कृति मंच के उत्तराखंड संयोजक प्रसिद्ध रंगकर्मी ज़हूर आलम ने शैले हाल में पधारे सभी दर्शकों का स्वागत करने के साथ अभियान के व्यापक उद्देश्यों को सामने रखा। साथ ही एक प्लेटफार्म के रूप में फिल्म फेस्टिवल से जुड़ने के लिये अन्य तमाम समानधर्मी संगठनों, व्यक्तियों को आमंत्रित किया। संजय जोशी ने तकनीकी विकास की प्रबलता और सुविधा को सामाजिक सरोकारों के पक्ष में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने की आवश्यकता पर जोर दिया। उड़ीसा के युवा चित्रकार प्रणव प्रकाश मोहंती इस बार नैनीताल फिल्मोत्सव से यहां के दर्शकों से परिचित हुए। उनके 30 के आसपास चित्रों की प्रदर्शनी का अलग आकर्षण था। कला इतिहास के स्नातक प्रणव अपनी कला और सोच को बाजारवाद के विरुद्ध खड़ा करने के संकल्प के साथ कला के सत्य को बचाये हुए हैं। फेस्टिवल में लगे उनके चित्र निरीह को ताकत देते लगते हैं। जबकि उनका प्रिय रंग काला है जिसे वह रोशनी के सौदागरों को चुनौती देते लगते हैं। उद्घाटन के अवसर पर फेस्टिवल में दिखायी जाने वाली फिल्म कुन्दन शाह की ‘जाने भी दो यारों’ थी। 1983 में बनी यह फिल्म अपने समय की व्यवस्थागत विडम्बना को हास्य व्यंग के साथ प्रस्तुत करती है। दौर के बदलाव के बावजूद जाने भी दो यारो का सत्य आज अपने सबसे नंगे रूप में मौजूद है।
फेस्टिवल का दूसरा दिन विविध स्तरीय व्याख्यानों, चर्चित लघु फिल्मों और बच्चों के कार्यक्रम समेटने वाला था। रामा मोंटेसरी स्कूल नैनीताल के बच्चों ने लोक गीत और लोकनृत्य की प्रस्तुति दी तो आशुतोष उपाध्याय ने बच्चों को धरती के गर्भ की संरचना, आग, पानी, खनिज आदि को बेहद रोचक व सरल तरीके से समझाया। इसके बाद पंकज अडवानी द्वारा निर्देशित हिन्दी बाल फिल्म ‘सण्डे’ का प्रदर्शन भी किया गया। उल्लेखनीय बात यह है कि शैले हाल में लगभग 500 बच्चों ने भागीदारी की। कुछ बच्चों ने हाल के बाहर बच्चों के लिए विशेष रूप से बनायी गयी गैलरी में अपने हुनर का इस्तेमाल करते हुए रोचक चित्र और रेखांकन बनाए । आयोजन टीम ने छोटे बच्चों को बहुत प्यारी छोटी पतंगें भी भेंटस्वरूप दीं ।
लघु फिल्मों में ‘द स्टोरी आफ स्टफ’, ग्लास, ज़ू, भाल खबर, दुर्गा के शिल्पकार और पाकिस्तान के लाल बेंड के म्यूजिक वीडियो के प्रदर्शन ने दर्शकों को विविध विषयों से जोड़ा। दिखायी गयी सभी लघु फिल्में विश्व और भारतीय फिल्मकारों की थी। उपरोक्त में पाकिस्तान के लाल बैंड को थोड़ा इस प्रकार से दर्ज करने की आवश्यकता है कि इसके कार्यक्रम में पाकिस्तान के तीन बड़े इंकलाबी शायरों-फ़ैज़, हबीब ग़ालिब और अहमद फराज की शायरी को आवाम की धरोहर बना दिया है। निश्चित ही लाल बैंड अपने विचारों से भी जुड़ा है।
दूसरे दिन का अंतिम सत्र तीन अलग-अलग क्षेत्रों पर केन्द्रित व्याख्यानों के कारण महत्वपूर्ण हो गया। प्रभात गंगोला द्वारा प्रस्तुत प्रथम व्याख्यान भारतीय सिनेमा के बैक ग्राउंड स्कोर अर्थात् पाश्र्व ध्वनि संयोजन के विकास पर आधारित था कि कैसे तकनीकी विकास ने सिनेमा के पाश्र्व पक्ष को उन्नत बनाया और उसकी ऐतिहासिक यात्रा किन-किन पड़ावों से गुजरी। दूसरा व्याख्यान उड़ीसा में विकास की त्रासदी पर केन्द्रित था जिसे वहां के सूर्य शंकर दाश ने प्रस्तुत किया। पास्को, वेदांत जैसी कुख्यात कंपनियां किस प्रकार उड़ीसा के नियामगिरी इलाके को बर्बाद करने पर तुली हैं। इसको रिकार्ड करने के लिये कैसे कुछ लोग गुरिल्ला तरीके से अपना काम कर रहे हैं और राज्य, केन्द्र सरकार तथा बहुराष्ट्रीय निगमों के गठजोड़ को बेनकाब कर रहे हैं, श्री दाश अपने व्याख्यान को विडियो क्लिपिंग्स के माध्यम से सामने रखते हैं। राष्ट्रीय मीडिया के तमाम चैनल के लिये यह कोई खबर नहीं है। तीसरा व्याख्यान विकास के ही एक नये माडल उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधों द्वारा रचे जा रहे विनाश के कुचक्र पर केन्द्रित था जिसे इंद्रेश मैखुरी ने प्रस्तुत किया। मैखुरी भाकपा (माले) के नेता हैं। उड़ीसा के समानान्तर उत्तराखंड में विकास के नाम पर बड़ी पूंजी का आतंक कायम हो चुका है और यह सच्चाई शीशे की तरह साफ है कि बड़े बांध, जिनकी संख्या 50 से उपर है, लगभग उत्तराखंड की में सारी नदियों के ऊपर बन रहे हैं। एक तरह से यह उत्तराखंड की ग्रामीण जनता के लिये बर्बादी की फरमान हैं। श्री मैखुरी ने तमाम ब्यौरों के रूप में इस दुश्चक्र के सारे बिन्दुओं को सामने रखा।
तीसरे दिन के पहले सत्र की शुरूआत मणि कौल निर्देशित फिल्म ‘दुविधा’ से हुई। ‘दुविधा’ भारत में 60-70 के दशक में समांतर और कला फिल्मों के दौर की क्लासिकल फिल्म थी। राजस्थान की सामंती पृष्ठभूमि में स्त्री की नियति को दर्शाने वाली ‘दुविधा’ को कथारूप देने वाले हैं विजयदान देथा। महिला फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी आज सिने क्षेत्र में भी सक्रिय हो चुकी है। ‘दुविधा’ के प्रदर्शन के बाद चार महिला फिल्मकारों की फिल्में दिखायी गयी। सब्जी मंडी के हीरे (निलिता वाच्छानी), कमलाबाई (रीना मोहन), सुपरमैन आफ मालेगांव (फै़ज़ा अहमद खान) और व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू किस्रेंट मून ? (इफ़त फातिमा)। इन चारों वृत्त चित्रों में अलग-अलग विषय हैं।
नदियों को विषय बनाकर अपल ने अफ्रीका की जाम्बेजी से लेकर भारत की ब्रह्मपुत्र, गंगा और गोमती की रोमांचक यात्रा और इनकी बदलती स्थितियों पर पूर्व से लेकर आज तक एक नजर डाली बोलकर भी और नदी यात्राओं की फिल्म दिखा कर भी। उन्होंने विशेष रूप से इन नदियों और नदी तटवासियों के बरबाद होने के कारणों पर भी गहरी नजर डाली। उत्तराखंड तो तमाम महत्वपूर्ण नदियों कर उद्गम है और नदियों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। तीसरे दिन के व्याख्यान रुपी अंतिम प्रस्तुति सुप्रसिद्ध ब्राडकास्टर के. नन्दकुमार थे जिन्होंने दिल्ली से आकर ब्राडकास्टिंग की दुनिया का कैमरे और अन्य उपकरणों के निरन्तर विकास के क्रम में सजाया और फिल्म के माध्यम से बताया।
फैस्टिवल की अंतिम प्रस्तुति क्रांतिकारी धारा के कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी के काव्यपाठ और उन पर बनी फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ थी। विद्रोही जी अपनी अनोखी शैली और अद्भुत काव्य क्षमता के कारण लोगों के बीच में पहचाने जाते हैं।
..... मदन चमोली
Tuesday, December 21, 2010
पहाड़ चढ़ता प्रतिरोध
नैनीताल फ़िल्मोत्सव (29 से 31 अक्टूबर, 2010) के ठीक पिछले हफ़्ते मैं बम्बई में था, मुम्बई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (मामी) में. हम के युद्ध स्तर पर फ़िल्में सम्पन्न रहे थे. कई दोस्त बन गए थे जिनमें से बहुत सिनेमा बनाने के पेशे से ही किसी न किसी रूप में जुड़े हुए थे. जिसे भी बताता कि “यहाँ से निकलकर सीधा नैनीताल जाना है.” सवाल आता... क्यों? “क्योंकि वहाँ भी एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल है.” ..सुनने वाला भौंचक. नैनीताल में फ़िल्म समारोह.. ये कैसे? पूरी बात बताओ. और जान लिया तो फिर एक इत्मिनान की साँस.. बढ़िया. और फिर हर पुराने आदमी के पास एक कहानी होती सुनाने को. कहानी जिसमें भारत के हृदयस्थल में बसा कोई धूल-गुबार से सना कस्बा होता. कुछ जिगरी टाइप दोस्त होते, कस्बे का एक सिनेमाहाल होता और पिताजी की छड़ी होती. “भई हमारे ज़माने में ये ’क्वालिटी सिनेमा-विनेमा’ था तो लेकिन बड़े शहरों में. हमें तो अमिताभ की फ़िलम भी लड़-झगड़कर नसीब होती थी. पिताजी जब हमारी हरकतें देखते तो कहते लड़का हाथ से निकल गया..”
तब समझ आता है कि पांच
इस बार नैनीताल आ
मुख्यधारा सिनेमा द्वारा बेदखल की गई दो दुर्लभ फ़ीचर फ़िल्मों का यहाँ प्रदर्शन हुआ. परेश कामदार की ’खरगोश’ तथा बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’. इनमें बेला नेगी की ’दाएं या बाएं’ पर यहाँ लिखना ज़रूरी है. क्योंकि एक अनचाहे संयोग के तहत जिस दिन फ़िल्म को नैनीताल में दिखाया और पसंद किया जा रहा था ठीक उसी दिन यह फ़िल्म सिर्फ़ दो महानगरों के कुछ गिने हुए सिनेमाघरों में रिलीज़ हो ’बॉक्स ऑफ़िस’ पर अकाल मृत्यु के गर्भ में समा गई. कई बार फ़िल्म उसकी मुख्य कथा में नहीं होती. उसे आप उन अन्तरालों में पाते हैं जिनके सर मुख्य कथा को ’दाएं या बाएं’ भटकाने का इल्ज़ाम है. ठीक ऐसे ही बेला नेगी की फ़िल्म में बस की खिड़की पर बैठी एक विवाहिता आती है. दो बार. पहली बार सपने की शुरुआत है तो दूसरी बार इस प्रसंग के साथ मुख्य कथा वापिस अपनी ज़मीन पकड़ती है. परदे पर इस पूरे प्रसंग की कुल ल

मल्लीताल के मुख्य बाज़ार से थोड़ा सा ऊपर बनी शाही इमारत ’नैनीताल क्लब’ की तलहटी में कुर्सियाँ फ़ैलाकर बैठे, बतियाते संजय काक ने मुझे बताया कि संजय जोशी अपने साथ विदेशी फ़िल्मों की साठ से ज़्यादा कॉपी लाए थे, ज़्यादातर ईरानी सिनेमा. सब की सब पहले ही दिन बिक गईं. शायद यह सुबह दिखाई ईरानी फ़िल्म ’टर्टल्स कैन फ़्लाई’ का असर था. संजय ने खुद कहा कि लोग न सिर्फ़ फ़िल्में देख रहे हैं बल्कि पसन्द आने पर उन्हें खरीदकर भी ले जा रहे हैं. इस बार फ़ेस्टिवल में वृत्तचित्रों की बिक्री भी दुगुनी हो गई है. उस रात पहाड़ से उतरते हुए मेरे मन में बहुत अच्छे अच्छे ख्याल आते हैं. नैनीताल से पहाड़ शुरु होता है. नैनीताल फ़िल्मोत्सव के साथी सार्थक सिनेमा को पहाड़ के दरवाज़े तक ले आए हैं. और अब नैनीताल से सिनेमा को और ऊपर, कुछ और ऊँचाई पर इसके नए-नए दर्शक ले जा रहे हैं. पहाड़ की तेज़ और तीख़ी ढलानों पर जहाँ कुछ भी नहीं ठहरता सिनेमा न सिर्फ़ ठहर रहा है बल्कि अपनी जड़ें भी जमा रहा है, गहरे.
Thursday, December 2, 2010
2nd Patna Film Festival
Cinema of Resistance
2nd Patna Film Festival
Kalidas Rangalaya, Gandhi Maidan, Patna
Day One December 4, 2010 Saturday
5 pm 20 min/ Screening of G Arvindam
2000/ 19 min/English/ Shaji N Karun
5.25 pm 130 min Screening of KUTTY SRANK
2009/130 min/Malayalam with English subtitles/Shaji N Karun
7.25 pm 30 min Interaction with the Director
Day Two Sunday December 5, 2010
12.05 pm 34 min Screening of RED BALLOON
1956/34 min/Color/Albert Lamoressi
12.45 pm 87 min Screening of CHHUTKAN KI MAHABHARAT
2004/87 min/Color/Sankalp Meshram
2.20 pm 25 min Screeing of I WOKE UP ONE MORNING AND FOUND
MYSELF FAMOUS (2010/25 min/Color/Sumit Purohit)
3.05 pm 79 min Screening of BISHAAR BLUES
2006/79 min/Color/Amitabh Chakraborty
4.30 min 26 min Screening of THE MAN WHO MOVED THE MOUNTAIN
2010/26 min/Color/Hindi with English subtitles/Kumud Ranjan
5.15 pm 30 min HUM DEKHENGE
2010/100 min/Color & B/W/Mix Language/Tarun Bhartiya &
K Mark Swer
6.05 pm 42 min Screening of HINDU TO HINDUTVA
2010/42 min/Color/Oriya with HST/Debranjan Sarangi
7 pm 75 min SAMJHAUTA (PLAY)
Writer – Muktibodh, Director – Praveen Gunjan
Day Three Monday December 6, 2010
12.05 pm 120 min Screening of THE OTHER SONG
2009/120 min/Color/Hindi, Urdu, English with EST/Saba Deewan
2.40 pm 60 min Screening of HUM DEKHENGE
2010/100 min/Color & B/W/Mix Language/Tarun Bhartiya &
K Mark Swer
3.45 pm 55 min Screening of NERO'S GUEST
2009/55 min/Color/Deepa Bhatia
4.45 pm 70 min Screening of I WONDER 2009/70 min/ Anupama Srinivasan
5.55 pm/20 min/ Interaction with the Director
6.25 pm 115 min Screening of DAAYAN YA BAAYEN
2010/115 min/Color/Hindi/Bela Negi
8.20 pm 15 min CLOSING CEREMONY
Organised by Hirawal and The Group, Jan Sanskriti Manch
Contact: Santosh Jha, Convener Hirawal,
Madandahri Bhawan, 2nd Floor, SP Verma Road, Patna-800001
Email: hirawal@hgmail.com, thegroup.jsm@gmail.com
Phone:9334071886,9852974559, 9334454280, 09811577426
Wednesday, October 13, 2010
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव

गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव
सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध के सिनेमा का अभियान
आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी फीचर फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। ऐसी ही फिल्में प्रतिरोध के सिनेमा के सिलसिले को आगे बढ़ाती हैं और सिनेमा में प्रतिपक्ष का निर्माण करती हैं। जन संस्कृति मंच द्वारा ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की थीम पर 8 से 10 अक्तूबर 2010 को वाल्मीकि रंगशाला ;उ0 प्र0 संगीत नाटक अकादमी , गोमती नगर में आयोजित तीसरा लखनऊ फिल्म उत्सव इसी तरह की फिल्मों पर केन्द्रित था। सुपरिचित कलाकार और जनगायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित इस समारोह में एक दर्जन से अधिक हिन्दी और इससे इतर अन्य भाषाओं की फिल्मों के माध्यम से आम जन की पीड़ा व त्रासदी के साथ ही उनका संघर्ष और प्रतिरोध देखने को मिला। इस आयोजन की खासियत यह भी थी कि फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही चित्रकला, गायन और सिनेमा व संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर भी यहाँ चर्चा हुई।
समारोह का उदघाटन करते हुए हिन्दी के युवा आलोचक और जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि जन संस्कृति मंच द्वारा लखनऊ, गोरखपुर, बरेली, इलाहाबाद, भिलाई, पटना, नैनीताल सहित देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाला फिल्म उत्सव एक तरह का घूमता आइना है जो देश, समाज और दुनिया के ऐसे लोगों और इलाकों की तस्वीर दिखाता है जिनको मास मीडिया जानबूझ कर नहीं दिखाता या अपने तरीके से दिखाता है। दरअसल देश उनका हो गया है जिनका संसाधानों व सम्पत्ति पर कब्जा है और जिन्होंने देश के बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल दिया है। सम्पत्ति और सत्ता पर कब्जा करने वाले लोग कलाओं, अभिव्यक्तियों और रचनाशीलता को भी अपने तरह से प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ये लोग गरीबों की चेतना के पिछड़ेपन को भी बनाए रखना चाहते हैं। इसके खिलाफ खड़ा होना सिर्फ राजनीति का ही नहीं संस्कृति का भी काम हैं। शिल्प, चित्रकला, सिनेमा सहित कला की सभी विधाओं के जरिए शोषण, दमन से पीड़ित लेकिन संघर्षशील जनता की अभिव्यक्ति करना ही आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने कहा कि कला का अर्थ है आदमी को बेहतर बनना है। इस काम में सिनेमा एक सशक्त माध्यम है। हमें फूहड़ सिनेमा के जरिए जनता के टेस्ट खराब करने तथा इसके द्वारा अपसंस्कृति व क्रूरताओं को फैलाने की जो कोशिश हो रही है, उसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। उद्घाटन सत्र में मशहूर चित्रकार एवं लेखक अशोक भौमिक ने फिल्म उत्सव की स्मारिका ‘प्रतिरोध का सिनेमा, सिनेमा का प्रतिपक्ष’ का लोकार्पण किया। उद्घाटन सत्र का संचालन जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया।
फिल्म उत्सव की शुरुआत प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के ‘जीवन और कला: संदर्भ तेभागा आन्दोलन और सोमनाथ होड़’ पर विजुअल व्याख्यान से हुई। उन्होंने कहा कि सोमनाथ होड़ का कलाकर्म कलाकारों को जनआन्दोलनों से जोड़ने के लिए प्रेरित करता है। 1946 में भारत की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ने 23 वर्ष के युवा कला छात्र सोमनाथ होड़ को तेभागा आन्दोलन को दर्ज करने का काम सौंपा था। सोमनाथ ने किसानों के उस जबर्दस्त राजनीतिक उभार और उनकी राजनीतिक चेतना को अपने चित्रों और रेखांकनों में अभिव्यक्ति दी थी, साथ ही साथ अपने अनुभवों को भी डायरी में दर्ज किया। उनकी डायरी और रेखा चित्र एक जनपक्षधर कलाकार द्वारा दर्ज किया गया किसान आन्दोलन का अद्भुत दस्तावेज है। श्री भौमिक ने सोमनाथ होड़ के चित्रों और रेखांकनों के पहले भारतीय चित्रकला की यात्रा का विवेचन प्रस्तुत करते हुए कहा कि इस दौर में आम आदमी और किसान चित्रकला से अनुपस्थित है। उसकी जगह नारी शरीर, देवी-देवता और राजा-महराजा हैं। उन्होंने अपने व्याख्यान का अंत यह कहते हुए किया कि जनपक्षधर होना ही आधुनिक होना है।
फिल्म समारोह में तुर्की व ईरान की फिल्मों से लेकर बिहार व उत्तराखंड के गांव पर बनी फिल्में दिखाई गई। गौतम घोष की ‘पार’, यिल्माज गुने की ‘सुरू’ (तुर्की ) , बेला नेगी की दाँये या बाँये’ तथा बेहमन गोबादी की ‘टर्टल्स कैन फलाई’ (ईरानी) दिखाई गई। करीब पचीस साल पहले बनी गौतम घोष की ‘पार’ काफी चर्चित फीचर फिल्म रही है। यह बिहार के दलितों के उत्पीड़न, शोषण व विस्थापन के साथ ही उनके संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाती है। इस फिल्म का परिचय नाटककार राजेश कुमार ने दिया।
यिल्माज गुने की फिल्म सुरू दो कबीलों के बीच पिसती एक औरत की कहानी है। उसका पति अपने पिता से विद्रोह कर शहर में इलाज कराना चाहता है। एक संयोग के तहत उनका पूरा कुनबा अपनी भेड़ों को बेचने के लिए तुर्की की राजधानी अंकारा की या़त्रा करता है। इस यात्रा में वे बार-बार ठगे व लूटे जाते हैं। घर के विद्रोही बेटे केा अंकारा में अपनी बीवी के बेहतर इलाज की पूरी उम्मीद है। इस यात्रा में उनकी भेड़ें और पूरा परिवार ठगा जाता है और वे राजधानी की भीड़ में कहीं खो जाते हैं। यिल्माज गुने की फिल्मों पर बोलते हुए कवि और फिल्म समीक्षक अजय कुमार ने कहा कि बांग्ला कवि सुकान्त कहा करते थे कि मैं कवि से पहले कम्युनिस्ट हूँ, यह बात यिल्माज गुने पर लागू होती है। वे ऐसे फिल्मकार हैं जिन्हें सत्ता का दमन खूब झेलना पड़ा। जेल जाना पड़ा। देश से निर्वासित होना पड़ा। जेल में रहते हुए उन्होंने फिल्में बनाईं और उनका निर्देशन किया। उन्होंने मजदूर वर्ग की हिरावल भूमिका को पहचाना और अपनी जीवन दृष्टि को एक क्रांतिकारी जीवन दृष्टि में रूपान्तरित किया।
बेला नेगी की फिल्म ‘दांये या बांये’ एक ऐसे नौजवान रमेश माजीला की कहानी है जो पहाड़ के अपने छोटे से कस्बे से जाकर शहर में गुजारा करता है। शहर में अपनी प्रतिभा का कोई इस्तेमाल न पाकर गांव लौट आता है। शहर से आया होने के कारण सभी की नजरों में वह एक विशेष व्यक्ति बन जाता है लेकिन वह शहर वापस जाने के बजाय गांव में स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाने का निर्णय लेता है जिस पर गांव के लोग उसे आदर्शवादी कहकर हंसते हैं। यह फिल्म जीवन की गाढ़ी जटिलता और दुविधाओं को सामने लाती है। यह बाजारवाद की चमक से दूर जीवन के यथार्थ से रुबरु कराती है। यह फिल्म अभी रिलिज नहीं हुई है। इस तरह लखनऊ फिल्म समारोह में इसका प्रदर्शन प्रिमियर शो की तरह था।
फिल्म समारोह में इरानी फिल्म ‘टर्टल्स कैन फलाई’ दिखाई गई। इस फिल्म पर बोलते हुए अजय कुमार ने कहा कि ईरान में दुनिया की सबसे अच्छी फिल्में बन रही हैं। इन्हे न सिर्फ विश्व स्तर पर सराहना मिल रही है बल्कि अन्य देश के फिल्मकार इससे प्रेरणा भी ले रहे हैं। वहाँ 40 के दशक में वैकल्पिक फिल्में बनने लगी थीं। इस दौरान करीब डेढ़ दर्जन से अधिक महिला फिल्मकारों ने भी फिल्में बनाईं और वे सराही गईं। अजय कुमार ने ‘टर्टल्स कैन फलाई’ के संदर्भ में कहा कि यह न केवल दिल को दहला देने वाली फिल्म है बल्कि यह अन्दर तक झकझोर देती है। युद्ध की विभीषिका पर यूँ तो कई फिल्में बनी हैं लेकिन इस फिल्म के द्वारा युद्ध विरोधी जो संदेश मिलता है, वह अनूठा है।
कबीर परियोजना के तहत फिल्मकार शबनम विरमानी ने अपने दल के साथ मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पाकिस्तान और अमेरिका की यात्रा की। इस अवधि में ऐसे कई लोक गायकों, सूफी परंपरा से जुड़े गायकों से मिलने और उनको सुनने, कबीर के अध्ययन से जुड़े देशी-विदेशी विद्वानों और विभिन्न कबीर पंथियों से मिलकर उनके विचारों को जानने-समझने का प्रयत्न किया। छह वर्ष लंबी अपनी इस यात्रा में शबनम विरमानी ने चार वृत्तचित्र बनाए जिसमें से ‘हद-अनहद’ इस श्रृंखला की पहली कड़ी है। लखनऊ फिल्म उत्सव में इसे दिखाया गया। इस फिल्म का परिचय देते हुए कवि भगवान स्वरूप कटयार ने कहा कि इसके माध्यम से कबीर के राम को खोजने का प्रयास किया गया है, जो अयोध्या के राजा राम से भिन्न है। कबीर का राम अब भी लोक चेतना में बसा हुआ है। वह केवल किताबों तक सीमित नहीं है।
डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में बच्चों की दुनिया से लेकर काश्मीर, उड़ीसा के जख्म दिखाती फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। राजेश एस जाला की ‘चिल्डेन आफ पायर’ बच्चों की उस दुनिया से रूबरू कराती है जिसे हम देखना नहीं चाहते लेकिन यह सच दुनिया के किसी न किसी हिस्से में घटित हो रहा है। संजय काक की डाक्यूमेंटरी फिल्म जश्न-ए-आजादी ने काश्मीर का सच प्रस्तुत किया, वहीं देबरंजन सारंगी की फिल्म फ्राम हिन्दू टू हिन्दुत्व उड़ीसा के कंधमाल में साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे मल्टीनेशनल और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ को सामने लाने का काम किया। अतुल पेठे द्वारा बनाई फिल्म ‘कचरा व्यूह’ का भी प्रदर्शन हुआ जो सरकार और प्रशासन के सफाई कामगारों के प्रति दोरंगे व्यवहार का पर्दाफाश करती है।
फिल्मकार संजय जोशी ने पांच डाक्यूमेन्टरी फिल्मों के अंश दिखाते हुए ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ पर एक प्रस्तुति दी। उन्होंने आनन्द पटवर्धन की फिल्म बम्बई हमारा शहर, अजय भारद्वाज की एक मिनट का मौन, बीजू टोप्पो व मेघनाथ की विकास बन्दूक की नाल से, हाउबम पबन कुमार की एएफएसपीए 1958 और संजय काक की बंत सिंह सिंग्स के अंश दिखाते हुए कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के जरिए सही तौर पर प्रतिपक्ष की भूमिका निर्मित की है। उन्होंने कहा कि वर्ष 1975 के बाद आनन्द पटवर्धन की क्रांति की तरंगे से डाक्यूमेन्टरी फिल्मों में प्रतिपक्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ था जिसमें फिल्मस डिवीजन के एकरेखीय सरकारी सच के अलावा जमीनी सच सामने आते हैं। कई फिल्मकारों ने अपनी प्रतिबद्धता, विजन के साथ तकनीक का उपयोग करते हुए कैमरे को जन आन्दोलनों की तरफ घुमाया है और सच को सामने लाने का काम किया है।
फिल्म समारोह में संवाद सत्र के दौरान ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’ विषय पर बोलते हुए लेखक व पत्रकार अजय सिंह ने कहा कि डाक्यूमेन्टरी फिल्में राजनीतिक बयान होती हैं। यह राजनीति मुखर भी हो सकती है और छुपी हुई भी। जाहिर है कला के माध्यम से राजनीति फिल्म में प्रतिबिम्बित होती है। जब हम प्रतिरोध की सिनेमा की बात करते हैं तो उसका मतलब यह होता है कि हम मौजूदा ढाँचे के बरक्स कोई विकल्प भी पेश करना चाहते हैं। प्रतिरोध के पहले असहमति और विरोध का भी महत्व होता है और काफी पहले की बनी हुई डाक्यूमेंटरी फिल्में भी विरोध और असहमति के स्वर को आवाज देती रही हैं। उदाहरण के लिए 1970 के दशक में भारत सरकार के फिल्म्स डिवीजन के तहत बनी लोकसेन ललवानी की फिल्म ‘वे मुझे चमार कहते हैं’, एस सुखदेव की ‘पलामू के आदमखोर’, मीरा दीवान की ‘प्रेम का तोहफा’ जैसी फिल्मों को लिया जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि रेडिकल दृष्टिकोण या वामपंथी नजरिए से डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाई जाए।
लखनऊ फिल्म समारोह में फिल्मों का एक सत्र बच्चो के लिए भी था। इसमें अल्बर्ट लेमूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा संकल्प मेश्राम की फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ दिखाई गई। बच्चो ने इन फिल्मों के माध्यम से खेल कूद से इतर दुनिया पर्दे पर देखी जहाँ इस दुनिया में संवेदना भी है और कई जटिल सवाल भी। उन्हें महाभारत में द्रोपदी का चीरहरण गलत लगता है वहीं युद्ध बड़े लोग लड़ते हैं और उसकी कीमत बच्चों को भुगतनी पड़ती है। आखिर क्यों ? इस सत्र का संचालन के के वत्स ने किया।
फिल्म उत्सव में फिल्मों के अलावा मालविका का गायन भी हुआ। पुस्तक व कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी, डाक्यूमेन्टरी फिल्मों का स्टाल, पोस्टर और इस्टालेशन दर्शकों के आकर्षण के केन्द्र रहे। गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के स्टाल पर दो दर्जन से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्मों के डीवीडी उपलब्ध थे। लेनिन पुस्तक केन्द्र और गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पुस्तकों के स्टाल में भी लोगों ने रूचि दिखाई। कला संग्राम द्वारा हाल के बाहर ‘भेड़चाल’ के नाम से प्रस्तुत इस्टालेशन को लोगों ने खूब सराहा। बड़ी संख्या में छात्र, नौजवानों, महिलाओं व कर्मचारियों के साथ रवीन्द्र वर्मा, ‘उदभावना’ के सम्पादक अजेय कुमार, ‘निष्कर्ष’ के सम्पादक गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, वीरेन्द्र यादव, शकील सिद्दीकी, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, धर्मेन्द्र, वीरेन्द्र सारंग, चन्द्रेश्वर, नसीम साकेती, रमेश दीक्षित, आतमजीत सिंह, प्रतुल जोशी, वन्दना मिश्र, सतीश चित्रवंशी, मनोज सिंह, अशोक चैघरी आदि लेखकों व कलाकारों की उपस्थिति और सिनेमा के साथ ही कला के विविध रूपों के प्रदर्शन ने जसम के इस फिल्म उत्सव को सांस्कृतिक मेले का रूप दिया। इस फ़िल्म उत्सव का आयोजन लखनऊ जन संस्कृति मंच ने जसम के फ़िल्म समूह द ग्रुप और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी के साथ मिलकर किया.
कौशल किशोर, संयोजक, लखनऊ जन संस्कृति मंच
एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ -226017
मो - 09807519227
ई मेल: kaushalsil.2008@gmail.com
Sunday, October 3, 2010
प्रतिरोध के सिनेमा का तीसरा लखनऊ फ़िल्म उत्सव
प्रेस विज्ञप्ति
गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित
तीसरा लखनऊ फिल्म समारोह 8 से 10 अक्टूबर तक
लखनऊ, 3 अक्तूबर। जन संस्कृति मंच (जसम) ने तीसरे लखनऊ फिल्म उत्सव को सुपरिचित कलाकार व गायक गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की याद को समर्पित किया है। यह समारोह आगामी 8 अक्टूबर को वाल्मीकि रंगशाला, उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी, गोमती नगर में शाम चार बजे शुरू होगा तथा 10 अक्टूबर तक चलेगा। ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम पर आयोजित इस फिल्म उत्सव का उदघाटन हिन्दी के जाने-माने आलोचक व जसम के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण करेंगे तथा ‘जीवन और कला: सदर्भ तेभागा किसान आंदोलन और सोमनाथ होड़’ पर प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक के व्याख्यान से समारोह की शुरुआत होगी।
फीचर फिल्मों की श्रृंखला में गौतम घोष की ‘पार’ तथा बेला नेगी की ‘दाँये या बाँये’ दिखाई जायेंगी। ‘दाँये या बाँये’ में गिरीश तिवाड़ी गिर्दा की यादगार भूमिका है। समारोह में पिछली शताब्दी के क्रान्तिकारी फिल्मकार इल्माज गुने की चर्चित फिल्म ‘सुरू’ का प्रदर्शन होगा, वहीं लखनऊ के दर्शक ईरानी फीचर फिल्म ‘टर्टल्स कैन फ्लाई’ देख सकेंगे। ईरान के प्रसिद्ध फिल्मकार बेहमन गोबादी के निर्देशन में युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म उस विभीषिका को सामने लाती है जिसमें मनुष्य और मनुष्यता को खत्म किया जा रहा है।
लखनऊ फिल्म समारोह में वृतचित्रों के खण्ड में कबीर पर बनाई शबनम विरमानी की फिल्म ‘हद अनहद’ दिखाई जायेगी। पिछले दिनों देश के विभिन्न हिस्सों में हुए सत्ता के दमन और उसके खिलाफ संघर्ष तथा जनजीवन को गहरे प्रभावित करने वाली घटनाओं और त्रासदी को केन्द्र कर कई वृतचित्र बने जैसे कश्मीर पर संजय काक ने ‘जश्ने आजादी’ बनाई तो ओडीशा के कंधमाल में हुए दंगों पर देबरंजन सारंगी ने ‘फ्राम हिन्दू टू हिन्दूत्व’, बनारस के मणिकर्णिका घाट पर चिता जलाने वाले बच्चों की दशा पर राजेश एस जाला ने ‘चिल्ड्रेन ऑफ पायर’, पुणे महानगर में कचरे की राजनीति व सफाई कर्मचारियों के कर्मजीवन पर अतुल पेठे ने ‘कचरा व्यूह’ जैसे वृतचित्रों का निर्माण किया। ये फिल्में लखनऊ फिल्म समारोह का मुख्य आकर्षण होंगी।
इस फिल्म उत्सव में बच्चों का भी एक सत्र है जिसमें अल्बर्ट लामूरिस्सी की फ्रेंच फिल्म ‘रेड बैलून’ तथा हिन्दी फीचर फिल्म ‘छुटकन की महाभारत’ का आनन्द बच्चे उठा सकेंगे। फिल्मों के अलावा समारोह में संवाद, परिचर्चा तथा गायन के भी कार्यक्रम होंगे। ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’, ‘वृतचित्र: प्रतिरोध के कई रंग’, बदलती दुनिया में सिनेमा’ आदि विषयों पर परिसंवाद में अजय कुमार, अजय सिंह, संजय जोशी, राजेश कुमार, अनिल सिन्हा, भगवान स्वरूप कटियार, मनोज सिंह आदि भाग लेंगे। तरुण भारतीय और के मार्क स्वेअर द्वारा तैयार म्यूजिक वीडियो के गुलदस्ते ‘हम देखेंगे’ का लखनऊ के दर्शक आस्वादन करेंगे। मालविका भी अपना गायन प्रस्तुत करेंगी।
जसम के संयोजक कौशल किशोर ने बताया कि आज दर्शक स्वस्थ मनोरंजन चाहता है और हमारी कोशिश है कि जनता तक ऐसी कला पहुँचाई जाय जो उन्हें सजग, संवेदनशील, जागरुक और जुझारू बनाये। सिनेमा सशक्त व लोकप्रिय कला माध्यम है। यह आन्दोलन और प्रतिरोध का माध्यम बने। आज जनजीवन और सामाजिक संघर्षों से जुड़ी ऐसी कथा फिल्मों और वृतचित्रों का निर्माण हो रहा है जहाँ समाज की कठोर सच्चाइयाँ हैं, जनता का दुख.दर्द, हर्ष.विषाद और उसका संघर्ष व सपने हैं। इसी तरह की फिल्मों को लेकर तीन दिन का यह कार्यक्रम है। फिल्मों का प्रदर्शन निशुल्क और जनता के सहयोग से किया जा रहा है। इस अवसर पर ‘प्रतिपक्ष की भूमिका में सिनेमा’ स्मारिका भी जारी की जायेगी।
प्रेस वार्ता को लेखक व पत्रकार अनिल सिन्हा, नाटककार राजेश कुमार, कवि भगवान स्वरूप कटियार , संस्कृतिकर्मी रवीन्द्र कुमार सिन्हा आदि ने भी सम्बोधित किया।
कौशल किशोर
संयोजक, जन संस्कृति मंच, लखनऊ
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