Friday, December 25, 2009

पटना फिल्म फेस्टिवल का उद्घाटन

पटना फिल्म फेस्टिवल की स्मारिका का विमोचन करते हुए बाएं से प्रणय , अरुण कमल, गिरीश कसरावल्ली, श्रीप्रकाश और संजय

पहला पटना फिल्म फेस्टिवल प्रारंभ

पटना के इण्डस्टीज एसोसिएशन के सभागार में 25 दिसम्बर को अपरान्ह तीन बजे से पहला पटना फिल्म फेस्टिवल शुरू हुआ। तीन दिन तक चलने वाले इस फिल्म फेस्टिवल में 16 फिल्में दिखाई जाएंगी। जनसंस्कृति मंच और हिरावल के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस फिल्म फेस्टिवल की उद्घाटन फिल्म गुलाबी टाकीज थी। राष्टीय पुरस्कार प्राप्त इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक प्रसिद्ध फिल्मकार गिरीश कसरावल्ली भी इस मौके पर मौजूद थे। श्री कसरावल्ली ने इस मौके पर तथा फेस्टिवल शुरू होने के पहले पत्रकारों से अपनी फिल्मों के अलावा सिनेमा परिदृश्य पर बातचीत करते हुए कहा कि मै अंग्रेजी भाषा में इसलिए फिल्में नहीं बनाता क्योंकि मेरे पात्र वंचित और हाशिए पर पड़े लोग हैं। वे न तो अंग्रेजी बोलते हैं और न ही उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए मै उन्ही की भाषा में फिल्म बनाता हूं। मै चाहता हूं कि मेरी फिल्मों की डबिंग हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं में हो क्यांेकि मै अपने सिनेमा का मैसेज उन लोगों तक पहुंचाना चाहता हूं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि और बालीवुड की फिल्मों से दुनिया की सही तस्वीर सामने नहीं आती। असली सचाई तो अर्थपूर्ण सिनेमा को देखने से पता चलती है। इस सिलसिले में उन्होंने इरानी सिनेमा का विशेष रूप से जिक्र्र करते हुए कहा की मीडिया ने दुनिया के लोगों के सामने इरान की एक खास इमेज प्रस्तुत की है लेकिन वहां का सिनेमा असली इरान की तस्वीर प्रस्तुत करता है। उन्हांेने जनसंस्कृति मंच द्वारा प्रतिरोध के सिनेमा के तहत देश के विभिन्न स्थानों पर फिल्म फेस्टिवल के आयोजन को सार्थक और अर्थपूर्ण फिल्मों को आम जनता तक पहुंचाने का अभिनव प्रयोग बताया।
इसके पूर्व फेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए जनसंस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा हाशिए पर फेंक दिए गए उत्पीड़ित लोगों की पीड़ा, उसके पीछे के कारणों और प्रतिरोध की ताकत को सामने लाता है। प्रतिरोध के सिनेमा का आन्दोलन आज दुनिया भर में चल रहे स्थानीय जनता के भूमण्डलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के खिलाफ आन्दोलनों को ताकत देने का काम कर रहा है। आज भले ही भारत में सत्ता की तमाम पार्टियां उदारीकरण की नीतियों को लागू कर रही हैं लेकिन बगैर किसी झण्डा, बैनर के भी देश भर में भूमण्डलीेकरण का दंश झेल रहे आदिवासी, किसान, मजदूर उसके खिलाफ बहादुरी से लड़ रहे हैं। इन आन्दोलनों को एक सूत्र में पिरोना ही आज की प्रतिरोध की ताकतों का मुख्य कार्यभार है। सिनेमा आन्दोलन अगर इसमें मदद करेगा तो बदलाव और व्यवस्था परिवर्तन की ताकतें मजबूत होंगी। उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि अरूण कमल ने की। अतिथियांे का स्वागत प्रो नवल किशोर चैधरी ने किया। इस मौके पर फिल्मकार अरविन्द सिन्हा, श्रीप्रकाश आदि उपस्थित थे। जनसंस्कृति मंच के द ग्रुप केे संयोजक फिल्मकार संजय जोशी ने बताया कि प्रतिरोध के सिनेमा पर पटना में आयोजित होने वाला फिल्म फेस्टिवल 12वां फिल्म फेस्टिवल है। हम ये आयोजन किसी कारपोरेट हाउस या पूंजीपतियों के पंैसे से नहीं बल्कि जनता की ताकत के भरोसे कर रहे हैं।उद्घाटन फिल्म गुलाबी टाकीज अपनी दुर्दिन में भी जिजीविषा बनाए रखने वाली एक महिला के वर्तमान अनुभव को परिकथा के अंदाज वाले सिनेमाई रूप में पेश करने के लिए गिरीश कसरावल्ली ने बहुचर्चित कलाकार वैदेही की एक लघुकथा के रूपान्तरण को आधार बनाया है।

Tuesday, December 15, 2009

मानवाधिकार दिवस पर गोरखपुर में फिल्म शो

मानवाधिकार दिवस पर पूर्वांचल में भुखमरी पर बनी डाक्यूमेन्ट्री दिखाई गई
गोरखपुर। डाक्यूमेन्ट्री फिल्म एनआदर आस्पेक्ट आफ इंडिया राइजिंग-डेथ बाई स्टारवेशन, गोरखपुर, कुशीनगर सहित कई जिलों में भुखमरी से मौतों के कारणों की जांच-पड़ताल करने वाली फिल्म है। यह फिल्म गरीबों तक सरकारी योजनाओं की पहुंचाने में सरकारी विफलता और शासन-प्रशासन की असंवेदनशीलता को सामने लाती है।मानवाधिकार दिवस पर प्रेस क्लब सभागार में गुरूवार की शाम इस फिल्म का शो हुआ। यह आयोजन गोरखपुर फिल्म सोसाइटी ने किया था। इस फिल्म को सच्चिदानंद मिश्र और विजय प्रकाश मौर्य ने बनाया है। ये दोनों युवक देवरिया जिले के रहने वाले हैं। पौन घंटे की इस फिल्म में नगीना मुसहर, शिवनाथ मुसहर से लेकर भिखारी, नारायण, पूजा, सोनू, विनोद गौड़, विकाउ चैहान, भीखी मल्लाह, तेजू निषाद सहित कुपोषण और भूख से मरे 22 व्यक्तियों के परिजनों, ग्रामीणों तथा भूख से हुई मौतों को कवर करने वाले पत्रकारों से बातचीत व साक्षात्कार तथा दस्तावेजों के अध्ययन पर आधारित इस फिल्म के कई दृश्य बहुत ही मार्मिक बन पड़े हैं। फिल्म के एक दृश्य में अपने पति और बच्चे को खो देने वाली महिला कहती है कि अपने बच्चों को भूख से बचाने के लिए किसके सामने हाथ पसारे ? यह एक दिन की बात तो नहीं है। यह तो रोज-रोज का है। इसी तरह एक दृश्य में भूख से मर गए दो बच्चों का पिता मीडिया कर्मियों को देखते ही गाली देने लगता है और कहता है कि उसकी रोज फोटो ली जा रही है लेकिन मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा है। फिल्म का शो शुरू होने के पहले गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक मनोज कुमार सिंह ने फिल्म और इसके निर्माता-निर्देशक सच्चिदानंद मिश्र व विजय प्रकाश मौर्य के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि गोरखपुर-बस्ती मण्डल के सात जिलों में वर्ष 2004 से अब तक भुखमरी से 70 से अधिक मामले आ चुके हैं लेकिन सरकार-प्रशासन ने एक भी मौत को स्वीकार नहीं किया है। यह फिल्म भुखमरी के कारणों की न केवल जांच-पड़ताल करती है बल्कि ग्रामीण गरीबों को जिंदा रहने के जद्दोजेहद को सामने लाते हुए सरकार की लफफाजी का पर्दाफाश करती है। फिल्म के प्रोड्यूसर और निर्देशक सच्चिदानंद ने फिल्म निर्माण से जुड़े अनुभवों की चर्चा करते हुए कहा कि उन्हें इसे बनाने में आठ महीने लगे और उन्हें उम्मीद है कि यह फिल्म लोगों को इस संवेदनशील मुद्दे पर झकझोरने का काम करेगी। इस मौके पर राजा राम चैधरी, कथाकार रवि राय, आसिफ सईद, आरिफ अजीज लेनिन, रामू सिद्धार्थ, नितेन अग्रवाल, अशोक चैधरी, मनीष चैबे, बैजनाथ मिश्र, सुधीर, मनोज सिंह एडवोकेट आदि उपस्थित थे।

मनोज

Saturday, November 14, 2009

नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के बहाने


लंबे अरसे से सोचता था कि नैनीताल में कोई फिल्म फेस्टिवल किया जाए. दोस्तों के साथ मिलकर योजना बनाने की कोशिश भी की. लेकिन कभी कुछ तय नहीं हो पाया. इस बार पता चला कि अपने ही कुछ पुराने साथी वहां पर फिल्म फेस्टिवल की तैयारी कर रहे हैं तो मैं भी साथ में जुट गया. फेस्टिवल क़रीब आने पर दोस्तों से मिलने की ख़्वाहिश लिए मैं दिल्ली से नैनीताल के लिए निकल पड़ा. हमें उत्तराखंड संपर्क क्रांति से हल्द्वानी तक जाना था. साथ में भारत भी था. शाम चार बजे की ट्रेन थी लेकिन हम तीन बजे ही स्टेशन पहुंच गए. ऐसा बहुत कम हुआ है कि संपर्क क्रांति वक़्त पर चले. यही सोचकर पिछले महीने जब हल्द्वानी जाने के लिए स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ रही थी. तबीयत कुछ ख़राब थी. ऐसे में शारीरिक थकान तो थी ही मानसिक तौर पर भी बड़ी मुश्किल हुई. उस दिन टिकट कैंसल कर दूसरे दिन ट्रेन पकड़ी थी. इस बार पहले से ही तय कर लिया था कि निर्धारित वक़्त से पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुंच जाएंगे. नतीज़ा ये हुआ कि पूरे एक घंटे प्लेटफ़ार्म पर इंतज़ार करना पड़ा.

पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर छह से काठगोदाम के लिए ट्रेन चली तो रिजर्व्ड डिब्बों में भी लोग ठूंस-ठूंस कर भरे हुए थे. कुछ सोते, कुछ जागते और कुछ पढ़ते रात के ग्यारह बजे हल्द्वानी पहुंचे. ट्रेन एक घंटा लेट थी. किसी रिश्तेदार के घर जाने की बजाय पुराने दोस्त और पत्रकार जहांगीर के पास जाना मुझे ज़्यादा ठीक लगा. वहां पहुंचा तो वो अतीत की बातें करता रहा. कुछ दोस्तों के फोन नंबर उसके पास थे. उनसे बात करवाता रहा. इस बीच भरी जवानी में साथ छोड़ चुके दोस्तों को भी हम याद करते रहे. कभी जो गहरे दोस्त थे और अब अजनबी बन चुके हैं ऐसे रिश्तों की बातें भी बीच में आईं. हम सोचते रहे कि छोटे से वक़्त में कितना कुछ बदल गया है.

सुबह जहांगीर अपनी गाड़ी से टैक्सी स्टैंड तक छोड़कर गया. शेयर्ड टैक्सी जैसे ही काठगोदाम से ऊपर की ओर चली अगली सीट पर बैठा मैं बाक़ी सवारियों से बेख़बर पहाड़ों को गौर से देख रहा था. हवा, पानी, पेड़, पत्थर, ज़मीन सब जाने-पहचाने लग रहे थे. मैं पुराने दिनों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था. अचानक लगा कि दिल्ली में रहते मैं इस मिट्टी की गंध से कितना दूर हो गया हूं. नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन साह मुझ जैसे लोगों को स्वर्ग से ठुकराए हुए लोग यूं ही नहीं कहते. ख़ैर, आधे रास्ते में पता चला कि पिछली सीट में विवेक दा भी बैठे हैं. वो कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता हैं. पिछले कई सालों से दिल्ली में थे अब उत्तराखंड में पार्टी का काम देखते हैं. उन्होंने ही पहचानते हुए पीछे से मेरा नाम पुकारा. मिलकर अच्छा लगा. फिर रास्ते में वो उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों की लूट की कहानी बताते रहे. ज़ोर देते रहे कि मैं इस बारे में ज़रूर कुछ लिखूं. उन्होंने ये भी बताया कि कैसे पूरे राज्य में माओवाद का हौव्वा खड़ा कर आंदोलनकारियों पर लगाम कसी जा रही है. पिछले साल पीयूसीएल और पीयूडीआर की तरफ़ से उत्तराखंड आयी फैक्ट फाइंडिंग कमेटी में मैं भी शामिल था. इसलिए मुझे उनकी इस बात की गंभीरता पता थी. हम लोग प्रभाष जोशी की मौत और आज की बाज़ारू पत्रकारिता पर भी बात करते रहे.

नैनीताल मुझे हमेशा से लुभाता रहा है. लेकिन इस बार जब वहां पहुंचा तो लगा कि शहर का रंग उड़ा हुआ है. ये बात मैंने विवेक दा से पूछी. उन्होंने याद दिलाया कि पतझड़ का महीना है. लेकिन मैं सोचता रहा कि आसपास सदाबहार जंगल होने के बाद भी शहर में पतझड़ का इतना असर क्यों है. शायद बाहर से लाकर ज़बरदस्ती यहां लगाए गए पेड़ों की वजह से ऐसा था. पूरे माहौल में मुझे एक नकलीपन जैसा लगा. हम तल्लीताल से रिक्शे पर मल्लीताल के लिए निकले. मुझे अतीत में यहां बिताए दिन याद आते रहे. मॉल रोड से गुजरते हुए मैं हर आदमी और दृश्य को पहचानने की कोशिश कर रहा था. लेकिन सैलानी जोड़ों और दुकानों की चमक-दमक के बीच अपना जैसा कुछ भी नहीं लगा.

शैले हॉल में पहले नैनीताल फिल्म फेस्टिवल की गहमा-गहमी थी. शहर में घुसते ही जो वीराना और अजनबीपन लगा था. यहां आकर वो पूरी तरह दूर गया. एक साथ ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मिले. जिनसे मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी ऐसे साथियों से मिलने का सुख बयान नहीं किया जा सकता. तब लगा नहीं कि वक़्त ने हम सबको एक-दूसरे से कितना दूर कर दिया है. स्कूली दिनों का साथी प्रकाश इतने सालों बाद अचानक मिल गया. उसने बताया कि आजकल वो कहीं एसडीएम है.

ज़िंदगी के अलग-अलग इलाक़ों से लोग यहां पहुंचे थे. कोई आंदोलनों में सक्रिय था तो कोई रंगमंच में, कोई साहित्य में तो कोई सिनेमा में. सब से कोई न कोई पुराना रिश्ता. वे पूरी आत्मीयता से अपने-अपने विषय की बात बताते रहे. आंदोलन वाले मुझसे आंदोलनकारी की तरह बोल रहे थे तो रंगमंच वाले रंगकर्मी की तरह. साहित्य वाले और सिनेमा वालों का भी यही अंदाज़ था. मुझे लगा कि हर रास्ते में चलने की कोशिश में मैं उलझकर रह गया. मुझसे अच्छे तो वो साथी है जिन्होंने गंभीरता से कोई काम किया.

वीरेनदा हमेशा की तरह हुलसकर गले मिले. तो त्रिनेत्र जोशी ने भी सदाबहार मुस्कान के साथ स्वागत किया. इलाहाबाद से प्रणय कृष्ण, कानपुर से पंकज चतुर्वेदी और दिल्ली से अजय भारद्वाज चंद्रशेखर पर बनाई फिल्म एक मिनट का मौन के साथ पहुंचे थे. ज़हूर दा में आज भी वही पुरानी सक्रियता दिख रही थी. शेखर पाठक दोनों दिन डटे रहे. उन्होंने बताया कि वो इन दिनों हिमालयी इलाक़ों में औपनिवेशिक घुसपैठ के ऐतिहासिक अध्ययन को पूरा करने में जुटे हैं. इसके लिए उन्होंने फिर से पूरे हिमालयी इलाक़ों की खाक छान मारी है. बटरोही और गिर्दा भी प्यार से मिले. राजा बहुगुणा, गिरिजा पाठक, कैलाश, केके से मिलकर भी अच्छा लगा. त्रिभुवन फर्त्याल और अनिल रजबार भी बीच-बीच में चेहरा दिखाते रहे. गिरिजा पांडे, प्रदीप पांडे और हरीश पंत भी आते-जाते रहे. गढ़वाल से आए मदन मोहन चमोली अपने फकीरी ठाठ में दिखे. और भी ढेर सारे जाने-पहचाने चेहरे मौजूद थे. पिछले अस्कोट-आराकोट अभियान के अमेरिकी साथी डेन डेंटजन और फ्रांस की पेंटर और फिल्ममेकर कैथरीन से भी मिलकर अच्छा लगा. फेस्टिवल की रीढ़ और फिल्म मेकर संजय जोशी हर वक़्त सही स्क्रीनिंग की व्यवस्था करने में जुटे नज़र आए.

दोनों दिन पूरी गहमा-गहमी रही. फेस्टिवल की ज़्यादातर फिल्में पहले से देखी हुई थीं. इसलिए मैं कभी फिल्म देखता रहा तो कभी हॉल के बाहर दोस्तों से बात करता रहा. वहां चार्ली चैप्लिन की मॉडर्न टाइम्स, वित्तोरियो दे सिका की बाइसिकल थीव्स, माजिद मजीदी की चिल्ड्रन ऑफ़ हैवन और एमएस सथ्यू की गर्म हवा जैसी फिल्में दिखाई गईं. इनके अलावा नेत्र सिंह रावत की माघ मेला और एनएस थापा की एवरेस्ट भी दिखाई गई. प्रतिरोध के सिनेमा का ये पहला फेस्टिवल भी इन्हीं को समर्पित था. इनके अलावा और भी कई डॉक्यूमेंटरीज वहां दिखाई गईं. हैरत की बात ये थी कि फेस्टिवल के दौरान वहां लगातार ख़ुफिया विभाग वाले अड्डा ज़माए रहे. पता चला कि पहले दिन दैनिक जागरण ने छापा था कि फेस्टिवल की आड़ में नैनीताल में नक्सली जुटने जा रहे हैं. इसलिए इंटैलीजेंस वालों के वीडियो कैमरों की नज़र हम पर लगातार लगी रही.

फेस्टिवल फिल्मों के अलावा भी बहुत कुछ था. वहां अवस्थी मास्साब के बनाए पोस्टरों के डॉक्यूमेंटेशन को देखना एक अद्बुत अनुभव था. मास्साब अब दुनिया में नहीं है. वो अपने हाथों से जनआंदोलनों के पक्ष में और सामाजिक विरूपताओं पर चोट करने वाले पोस्टर बनाते थे और उन्हें गले में आगे-पीछे लटका कर शहर में घूमते थे. नैनीताल के लोग इस अद्भुत व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं पाएंगे. जब नैनीताल में था तो ज़हूर दा के इंतख़ाब में उनसे अक्सर मुलाक़ात होती थी. विनीता यशस्वी ने उनके पोस्टरों को सहेज कर बहुत बड़ा काम किया है. इस मौक़े पर बीरेन डंगवाल के कविता संग्रह स्याही ताल और दिवाकर भट्ट के संपादन में निकलने वाली पत्रिका आधारशिला के त्रिलोचन विशेषांक का भी विमोचन हुआ.

फेस्टिवल का सबसे यादगार और महत्वपूर्ण अनुभव रहा भारतीय चित्रकला पर अशोक भौमिक का प्रभावशाली व्याख्यान. सालों से सोचता रहा हूं कि जिसकी पेंटिंग्स जितनी महंगी बिकती हैं वो उतना बड़ा कलाकार कैसे मान लिया जाता है. अशोक दा की बातों में मुझे इस सवाल का जवाब मिल गया. उन्होंने रज़ा, सूजा और हुसैन के मुक़ाबले चित्त प्रसाद, जैनुअल आबीदीन और सोमनाथ होड़ की जनपक्षधर कला से रू-ब-रू कराया. थैंक्यू अशोक दा! फिल्म फेस्टिवल के दौरान ही शहर में सरकारी शरदोत्सव भी चल रहा था. वहां दिखाए जा रहे बाज़ारू कार्यक्रमों की वजह से ज़्यादातर साथी नाराज़ दिखे.

नैनीताल में शाम होते-होते पड़ने वाली हाड़ कंपा देने वाली ठंड का भी अपना ही एडवेंचर था. कुंडल ने ठंड भगाने की कुछ व्यवस्था तो की लेकिन सबकी ठंड दूर कर पाना इतना आसान नहीं था. इसलिए शायद बाहर से आए कुछ साथी निराश भी हुए. रात हमने अभिनेता इदरीश मलिक के होटल में बिताई. आजकल वो पारिवारिक वजहों से शहर में ही रहते हैं. फेस्टिवल के दौरान उनसे मुलाक़ात हो चुकी थी. हां, टीवी कलाकार हेमंत पांडे से भी मिला था. मैंने हैलो किया तो भाई की नज़र हवा में टिक गई. मैं समझ नहीं पाया कि मुझे सचमुछ नहीं पहचाना गया या बात कुछ और थी.

इतनी जल्दी शहर छोड़ने की इच्छा बिल्कुल भी नहीं थी लेकिन जल्दी लौटने की मज़बूरी थी. सुबह साढ़े पांच बजे जागकर हमने होटल छोड़ दिया. सुबह मैं और भारत वॉक करते हुए मल्लीताल से तल्लीताल पहुंचे. नैना देवी के मंदिर में घंटियां बज रही थीं, मैंने घंटियों की आवाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो उसने जोड़ा कि इससे पहले आरती और अजान भी सुनाई दे रहे थे. न जाने क्यों नास्तिक होने के बाद भी मुझे आरती और अजान में एक अद्भुत क़िस्म के संगीत का अहसास होता है. वो मेरे लिए म्यूजिक विद्आउट लिरिक जैसा कुछ है. पौ फट चुकी थी. धीरे-धीरे अंधेरा छंट रहा था. तल्लीताल कोर्ट के आसपास के भवन चांदी की तरह चमक रहे थे. ठंडी सड़क की तरफ़ अब भी अंधेरा था. झील में रोशनियों के प्रतिबिम्ब धीरे-धीरे तैरते हुए ख़त्म हो रहे थे. अंग्रेजों के बनाए गोथिक स्टाइल के आर्किटेक्चर में नैनीताल बहुत ख़ूबसूरत लग रहा था.

वो नौ नवंबर का दिन था. यानी उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस. तल्लीताल पहुंचने पर देखा कि उमा भट्ट की अगुवाई में महिला मंच की कार्यकर्ता बसों में भरकर गैरसैंण जा रही थीं. राज्य बनने के नौ साल बीत जाने के बाद भी लोग पहाड़ में राजधानी पाने के लिए लड़ रहे थे. सत्ताधारियों को जनता की ये मांग बेवकूफी लगती है. पहाड़ मुझे वहीं नज़र आया. जहां मैंने सालों पहले छोड़ा था. आंदोलन अब भी जारी हैं और प्रतिरोध की कलाएं उनके साथ खड़ी हैं. नैनीताल के लौटते वक़्त बस की अगली सीट पर बैठे मैंने देखा कि कहीं दूर नेपाल की पहाड़ियों में उग रहे लाल सूरज की किरणें यात्रियों की आंखों को चुंधिया रही थीं. हर मोड पर ये रोशनी और ज़्यादा तेज़ महसूस हो रही थी. ताज्जुब की बात ये कि मैंने आज तक पहाड़ी सफ़र में कभी इस तरह का सूरज नहीं देखा था. बस पटवाडांगर, ज्योलीकोट होते हुए आगे बढ़ रही थी. पतझड़ पीछे छूट चुका था. चारों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे. भावर की ढलान के बाद आगे मैदान शुरू होने थे. फिर एक दूसरे भूगोल में आना था.

-- भूपेन. ’कबाड़खाना’ से साभार.

Thursday, November 12, 2009

नैनीताल का पहला फ़िल्म उत्सव




7-8 नवम्बर 2009 को नैनीताल में पहले फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। नैनीताल में यह अपनी तरह का पहला आयोजन था जिसे एन.एस. थापा और नेत्र सिंह रावत को समर्पित किया गया था। इस फिल्म उत्सव का नाम रखा गया था `प्रतिरोध का सिनेमा´। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को उन संघषों से रु-ब-रु करवाना था जो कि कमर्शियल फिल्मों के चलते आम जन तक नहीं पहुंच पाती हैं। युगमंच नैनीताल एवं जन संस्कृति मंच के सहयोग से इस फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया।

आयोजन का उद्घाटन युगमंच व जसम के कलाकारों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करके की गयी। इसी सत्र में फिल्म समारोह स्मारिका का विमोचन भी किया गया और प्रणय कृष्ण, गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ एवं इस आयोजन के समन्वयक संजय जोशी ने सभा को संबोधित किया। इसके बाद आयोजन की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू निर्देशित `गरम हवा´ दिखायी गयी। बंटवारे पर आधारित यह फिल्म दर्शकों द्वारा काफी सराही गयी

सायंकालीन सत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह `स्याही ताल´ का विमोचन किया गया तथा गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ और विश्वम्भर नाथ सखा को सम्मानित किया गया। इस दौरान `आधारशिला´ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। इसके बाद राजीव कुमार निर्देशित 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री `आखिरी आसमान´ का प्रदर्शन किया गया जो कि बंटवारे के दर्द को बयां करती है। उसके बाद अजय भारद्वाज की जे.एन.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर पर केन्द्रत फिल्म `1 मिनट का मौन´ तथा चार्ली चैिप्लन की फिल्म `मॉर्डन टाइम्स´ दिखायी गयी। इस फिल्म के साथ पहले दिन के कार्यक्रम समाप्त हो गये।

दूसरे दिन के कार्यक्रमों की शुरूआत सुबह 9.30 बजे बच्चों के सत्र से हुई। इस दौरान `हिप-हिप हुर्रे´, `ओपन अ डोर´ और `चिल्ड्रन ऑफ हैवन´ जैसी बेहतरीन फिल्में दिखायी गयी। बाल सत्र के दौरान बच्चों की काफी संख्या मौजूद रही और बच्चों ने इन फिल्मों का खूब मजा लिया।

दोपहर के सत्र की शुरूआत में नेत्र सिंह रावत निर्देशित फिल्म `माघ मेला´ से हुई और इसके बाद एन.एस. थापा द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म `एवरेस्ट´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 1964 में भारतीय दल द्वारा पहली बार एवरेस्ट को फतह करने पर बनायी गयी है। यह पहली बार ही हुआ था कि एक ही दल के सात सदस्यों ने एवरेस्ट को फतह करने में कामयाबी हासिल की थी। निर्देशक एन.एस. थापा स्वयं भी इस दल के सदस्य थे। इस फिल्म को दर्शकों से काफी प्रशंसा मिली। इस के बाद विनोद राजा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री `महुवा मेमोआर्ज´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 2002-06 तक उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में किये जा रहे खनन पर आधारित है जिसके कारण वहां के आदिवासियों को अपनी पुरखों की जमीनों को छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह फिल्म आदिवासियों के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही।

सायंकालीन सत्र में अशोक भौमिक द्वारा समकालीन भारतीय चित्रकला पर व्याख्यान दिया गया और एक स्लाइड शो भी दिखाया गया तथा कवि विरेन डंगवाल जी का सम्मान किया गया। इस उत्सव की अंतिम फिल्म थी विट्टोरियो डी सिल्वा निर्देशित इतालवी फिल्म `बाइसकिल थीफ´। उत्सव का समापन भी युगमंच और जसम के कलाकारों की प्रस्तुति के साथ ही हुआ।

समारोह के दौरान अवस्थी मास्साब के पोस्टरों और चित्तप्रसाद के रेखाचित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसे काफी सराहना मिली।

विनीता यशस्वी के ब्लॉग "यशस्वी" से साभार

Monday, November 2, 2009

दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह : दमन के विरुद्ध एक सांस्कृतिक पहल




· ’दम, प्रतिरोध और सिनेमा’ की थीम पर दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह 11 से 13

सितम्बर को लखन की संगीत नाट अकादमी की वाल्मिकी रंगशाला में सम्पन्न. समारोह का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्मकार आंनद पटवर्धन द्वारा.


· युवा फ़िल्मकार अधिक से अधिक वृत्तचित्र बनाएं. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे रचनाकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहिये : विष्णु खरे


· जंग और अमन, राम के नाम, परज़ानिया, ख्याल दर्पण, द अदर साँग, बायसिकल थीफ़, ब्लड एन्ड ऑयल, नियमराजा का शोकगीत, नोलिया शाही, अशेन लाइफ़, जैसा बोओगे वैसा काटोगे जैसी फ़िल्मों के साथ हिरावल के गीतों की गूँज.


लखनऊ में आयोजित होने वाला यह दूसरा फ़िल्म महोत्सव था और स्वाभाविक था कि इस बार इसके लिए उत्सुक़्ता और उम्मीद दोनों ही ज़्यादा थी. 11 से 13 सितम्बर 2009 को आयोजित हुए इस फ़िल्म महोत्सव का मुख्य थीम ’दमन, प्रतिरोध और सिनेमा’ था. इस बार का फ़िल्म उत्सव प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक तपन सिन्हा, पाकिस्तान की लोकप्रिय गायिका इक़बाल बानो और प्रसिद्ध रंग निर्देशक हबीब तनवीर को समर्पित था.

तीन दिन तक चलने वाले इस समारोह में जहाँ एक दर्जन से ज़्यादा फ़ीचर और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में दिखाई गईं वहीं फ़िल्म, कला और साहित्य से जुड़े संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध के सिनेमा और संस्कृति के वैचारिक पहलुओं और व्यव्हारिक पक्षों पर चर्चा की. जसम के फ़िल्म समूह ’द ग्रुप’ के संयोजक, युवा फ़िल्मकार संजय जोशी का कहना था कि ’प्रतिरोध का सिनेमा’ कोई उत्सव नहीं बल्कि जनता का सांस्कृतिक आन्दोलन है और एक सपने के सच होने की शुरुआत है. यह आन्दोलन बिना कर्पोरेट, एन.जी.ओ., सरकारी स्पॉन्सरशिप के जनता की शक्तियों पर निर्भर होकर चलाया जा रहा है. अब तक नौ फ़िल्म उत्सव इस क्रम में जसम की ओर से आयोजित हो चुके हैं.

फ़िल्मोत्सव का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक आनन्द पटवर्धन ने किया. उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता थे हिन्दी के वरिष्ठ कवि और सिनेमा आलोचक विष्णु खरे. उन्होंने अपने उद्घाटन वक्तव्य में यह मुद्दा उठाया कि दमन का प्रतिरोध करने वालों को हमेशा ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. लोग विरोध करना चाहते हैं. उनके पास मुद्दे हैं, समझ भी है लेकिन उसे फ़िल्माने के लिए साधन नहीं हैं. हमारे पास ऐसा आर्थिकतंत्र नहीं है जिससे हम प्रतिरोध का सिनेमा बना सकें. राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम जैसी संस्थाएं सत्ता के कब्ज़े में हैं. उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती. इस हालत में ज़रूरी है कि युवा फ़िल्मकार ज़्यादा से ज़्यादा वृत्त चित्र बनाएं. स्कूल-कॉलेज के बच्चे आगे आएं और जन समस्याओं को लेकर फ़िल्में बनाएं और प्रोजेक्टर से फ़िल्में दिखाएं. दलित सिनेमा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे साहित्यकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहियें. प्रतिरोध का सिनेमा इसी रास्ते से आगे बढ़ सकता है. उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और कवि व फ़िल्म समीक्षक अजय कुमार ने की.

फ़िल्म समारोह की शुरुआत अपने जनगीतों और प्रयोगधर्मी नाटकों के लिए मशहूर हिरावल, पटना की गायन से हुई. इस अवसर पर हिरावल ने फ़ैज़ की नज़्म “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे”, दिनेश कुमार शुक्ल की कविता “जाग मेरे मन मछन्दर” तथा वीरेन डंगवाल की कविता “हमारा समाज” की संगीतमय प्रस्तुति दी. हिरावल के गीतों और कविताओं का विस्तार के पी ससि के म्यूज़िक वीडियो “गाँव छोड़ब नाहिं” में देखने को मिला जो विकास के नाम पर विस्थापित किए जा रहे आदिवासियों के प्रतिरोध को स्वर देता है.

लखनऊ फ़िल्मोत्सव में आनंद पटवर्धन की दो मशहूर फ़िल्में “राम के नाम” तथा “जंग और अमन” दिखाई गईं. इनका परिचय अजय कुमार ने दिया. उन्होंने कहा कि आनंद पटवर्धन न सिर्फ़ हमारे समय के विशिष्ठ फ़िल्मकार हैं बल्कि सिद्धान्तकार भी हैं. पटवर्धन ने ही मुम्बईया सिनेमा के सामने गुरिल्ला सिनेमा जैसा कॉन्सेप्ट रखा. “जंग और अमन” में पटवर्धन निर्लज्ज सैन्यवाद की ओर भारतीय उपमहाद्वीप की दौड़, युद्धोन्माद और परमाणु हथियारों की होड़ को बड़ी पीड़ा के साथ रेखांकित करते हैं और साथ ही इनके खिलाफ़ हो रहे प्रतिरोध को भी दिखाते हैं. आनन्द पटवर्धन की दूसरी फ़िल्म “राम के नाम” बाबरी मस्जिद विध्वंस की तपिश को महसूस करती फ़िल्म है. दोनों फ़िल्मों के बाद आनन्द पटवर्धन ने दर्शकों से बात की और उनके सवालों का जवाब दिया.

साम्प्रदायिक हिंसा के जिस तपिश का अहसास आनन्द पटवर्धन की फ़िल्में कराती हैं उसी का विस्तार राहुल ढोलकिया की “परज़ानिया” में दिखता है. यह फ़िल्म गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए अल्पसंखयकों पर हमलों की दुखद दास्तान बयाँ करती है. यूसुफ़ सईद की “खयाल दर्पण” पाकिस्तान में प्रवाहित होती शास्त्रीय संगीत की यात्रा का चित्रण है. यह फ़िल्म भारत और पाकिस्तान के बीच सांस्कृतिक एकता की जड़े तलाशती हुई अच्छे रिश्तों की उम्मीद जगाती है. सबा दीवान की फ़िल्म “द अदर साँग” बनारस की मशहूर गायिका रसूलन बाई के लुप्त गीत की खोज के ज़रिए उनकी और उन जैसी तवायफ़ों के जीवन के तमाम पहलुओं को सामने लाती है. इन फ़िल्मों का परिचय जाने-माने नाटककार राजेश कुमार तथा संजय जोशी ने दिया.

लखनऊ फ़िल्म समारोह में विक्टोरिया डि सिका की मशहूर फ़िल्म “बाएसिकल थीफ़” भी दिखाई गई. इस क्लासिक फ़िल्म का परिचय विष्णु खरे ने दिया. यह फ़िल्म दूसरे विश्व युद्ध के बाद के रोम की कहानी कहती है और गरीबों का दर्द बयाँ करती है. सिनेमा की दुनिया में “बायसिकल थीफ़” कालजयी फ़िल्म है. इस फ़िल्म ने दुनिया भर के सिनेमा निर्देशकों को प्रभावित किया जिनमें हिन्दुस्तान के बिमल राय तथा सत्यजित राय भी शामिल हैं. इसके बाद जर्नलिस्ट माइकल टी क्लेयर की फ़िल्म “ब्लड एंड ऑयल” दिखाई गई. यह फ़िल्म अमेरिका की गोपनीय ऑयल पालिसी केन्द्रित विदेश नीति की परतें खोलती है. युवा पत्रकार मनोज सिंह ने इस फ़िल्म का परिचय दिया.

समारोह के तीसरे दिन सुबह का सत्र बच्चों के नाम था जिसकी शुरुआत हिरावल की बाल कलाकार रुनझुन के गीतों से हुई. इसके बाद राजेश चकवर्ती निर्देशित एनिमेशन फ़िल्म “हिप हिप हुर्रे” दिखाई गई. इस फ़िल्म के लिए बहुत प्यारे गीत जावेद अख़्तर ने लिखे हैं. अरुण खोपकर की फ़िल्म “हाथी का अण्डा” भी दिखाई गई. फ़िल्मों का परिचय कवि भगवान स्वरूप कटियार और संस्कृतिकर्मी के के वत्स ने दिया.

फ़िल्म उत्सव का एक महत्वपूर्ण सत्र उडीसा में चल रहे आन्दोलन पर बनी फ़िल्मों का था. सूर्यसंकर दास की “नियमराजा का शोकगीत” “मनुष्य का अजायबघर” “शहीद”, नीला माधव नायक की “अशेन लाइफ़” तथा मानस मृदुली और संजय राय की “नोलिया साही” दिखाई गईं. यह फ़िल्में उडीसा की जनपक्षधर संस्था “समदृष्टि” द्वारा बनाई गई हैं. इस अवसर पर निर्देशक सूर्यशंकर दास मौजूद थे. उन्होंने कहा कि वे फ़िल्में फ़िल्मोत्सवों में दिखाने के लिए नहीं बनाते बल्कि पीड़ित जनता के लिए बनाते हैं.

समारोह में लघु फ़िल्मों का भी एक सत्र था. गीतांजलि राव की प्रशंसित फ़िल्म “प्रिंटेड रेनबो” दिखाई गई. मैला ढोने वाली महिला की कहानी पर बनी फ़िल्म “पी” दिखाई गई जिसका निर्देशन आर पी अमुधन के किया है. “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” दिखाई गई जिसका निर्देशन अजय भारद्वाज ने किया है. संजय प्रताप तथा अश्विनी फलनिकर की “रिमेम्बरिंग इमरजैन्सी” दिखाई गई.

लखनऊ फ़िल्म उत्सव में एक सत्र समकालीन भारतीय कला पर भी था. इस सत्र में सुप्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने “समकालीन भारतीय कला में जनपक्षधर प्रवृतियाँ” पर अपना व्यख्यान दिया. चित्रकार अशोक भौमिक के कलाकर्म पर परिचयात्मक टिप्पणी कवि वीरेन डंगवाल ने प्रस्तुत की. जसम फ़िल्मोत्सव का समापन हिरावल द्वारा गोरख पांडे के गीत “समय का पहिया चले रे साथी” की प्रस्तुति और लेखक, पत्रकार अनिल सिन्हा के समापन वक्तव्य से हुआ. अनिल सिन्हा का कहना था कि समय और समाज की वास्तविकताओं से दूर जिस अपसंस्कृति व क्रूरता को समाज में फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है उसके विरुद्ध सिनेमा कहाँ खड़ा है यह हमने यहाँ दिखाने की कोशिश की. इस तरह के कलात्मक प्रयासों द्वारा ही हम सुन्दर, सुसंसकृत और बराबरी वाले समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं.

इस मौके पर “दमन, प्रतिरोध और सिनेमा” स्मारिका तथा चित्त प्रसाद के नौ चित्रों का लोकार्पण भी हुआ. इस समारोह में सिनेमा के साथ साथ संस्कृति की अन्य विधाओं जैसे संगीत, गायन, चित्रकला का जो मिला-जुला रूप सामने आया वह जन संस्कृति मंच की इस अवधारणा को ही अभिव्यक्त करता है कि प्रतिरोध की संस्कृति जितनी ही बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी उतनी ही उसमें विविधता, सुन्दरता, समरसता होगी.

Friday, February 13, 2009

चौथा गोरखपुर फ़िल्म उत्सव कैमरे की नज़र से -पोस्ट 3

उद्घाटन सत्र का एक आकर्षण विश्व सिनेमा में चर्चित फिल्मकारों के जीवन-रचना कर्म पर आधारित पुस्तक 'पहली किताब' का विमोचन भी था।
फ़िल्म उत्सव का विशाल बैनर। पूरे उत्सव के दौरान यह विशाल बैनर और परिसर में लगे कविता पोस्टर गोरखपुर के लोगों के भीतर कौतुहल जगाते रहे और उन्हें रुकने पर मजबूर करते रहे.
अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' के प्रदर्शन के बाद दर्शकों से मुखातिब निर्देशक गिब्बी जोबेल.

गिब्बी जोबेल की फ़िल्म 'एम्.एस.टी.' को समारोह में खूब सराहना मिली. यह फ़िल्म प्रदर्शन के बाद ब्राजील की वर्त्तमान स्थिति और राष्ट्रपति लूला के शासन काल पर दर्शकों के बीच चर्चा की शुरुआत का माध्यम बनी.

ब्रितानी निर्देशक गिब्बी जोबेल की ब्राजील के भूमि-सुधार आन्दोलन पर बनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' का एक दृश्य.

Wednesday, February 11, 2009

कैमरे की नज़र से चौथा गोरखपुर फ़िल्म उत्सव.-पोस्ट 2

अरुंधति राय

यह तस्वीर उद्घाटन समारोह की है. अरुंधति राय के वक्तव्य के समय पाँच सौ की संख्या का हॉल खचाखच भरा था और लोग खड़े होकर अरुंधति का विचारोत्तेजक वक्तव्य सुन रहे थे. अरुंधति ने जल्द ही बातचीत को जनता के लिए खोल दिया था और गोरखपुर की जनता ने इसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। तस्वीर में आप एक नौजवान को अरुंधति से अपना सवाल पूछते देख सकते हैं.

ब्रिटिश फिल्मकार गिब्बी जोबेल ब्राजील के कृषि-सुधार आंदोलन पर बनी अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी' के साथ चौथे फ़िल्म उत्सव में मौजूद थे। यहाँ आप 'कहानी के रंगमंच' को नया आयाम देने वाले मशहूर नाटककार देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा गिब्बी जोबेल को समारोह का स्मृति चिह्न भेंट करते देख सकते हैं.

अपनी फ़िल्म 'एम.एस.टी.' के प्रदर्शन के बाद सवाल-जवाब सत्र में दर्शकों से बात-चीत करते निर्देशक गिब्बी जोबेल.

समारोह में 'विकास बन्दूक की नाल से बहता है' जैसी चर्चित फ़िल्म के निर्देशक मेघनाथ और बीजू टोप्पो दोनों मौजूद थे. यहाँ दर्शकों के सवालों का जवाब देते 'लोहा गरम है' फ़िल्म के प्रदर्शन के बाद फिल्म के निर्देशक मेघनाथ.

Tuesday, February 10, 2009

कैमरे के झरोखे से चौथा गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल!

सिनेमाकार गिरीश कासरवल्ली से बातचीत में मशगूल (बायें से दाएं) फ़िल्म फेस्टिवल के संयोजक संजय जोशी और फिल्मकार संजय मट्टू एवं अपल.



फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में मंच पर बैठे (बायें से दाएं) संजय काक, अरुंधति राय, रामजी राय, रामकृष्ण मणि त्रिपाठी और गिरीश कासरवल्ली। और समारोह का संचालन करते आशुतोष कुमार. तस्वीर में नीचे आप आगामी फ़िल्म-प्रदर्शन "गुलाबी टाकीज" की तैयारी भी देख सकते हैं. प्रोजेक्टर और साउंड सिस्टम तैयार है!


समारोह की शुरूआती तैयारियां जोरों पर हैं! दीवार पोस्टर तैयार किए जा रहे हैं! कुछ ही देर में समारोह स्थल को बहुविध चमकीले रंगों से पाट दिया जायेगा!

"जूता तो खाना ही था..."



गोरखपुर फिल्मोत्सव के तीसरे दिन बाहर के दालान में नज़ारा बहुत चहल-पहल का था। ख़ास वजह थी 'जूता तो खाना ही था...' श्रंखला की कविताओं का प्रदर्शन। इराकी पत्रकार मुंतदार अलजीदी द्वारा अमरीकी तानाशाह जार्ज बुश को जूता मारने की बहादुराना कार्यवाही इन कविताओं का विषय थी। तीसरी दुनिया के मुल्कों में मुंतदार की इसा कार्यवाही को जन-प्रतिरोध के रूपक के रूप में देखा गया। इस विषय को केंद्रित करके 'जूता तो खाना ही था...' शीर्षक समस्यापूर्ति आयोजित की गई थी, जिसके नतीजे में बीसियों कवितायेँ मिलीं। ग़ज़ल, शेर, दोहा, कुंडली, सवैया, जैसे पुराने छंदों के आलावा मुक्त छंद में ढेरों कवितायेँ लिखीं गई। दुर्गा सिंह (चित्रकूट), आलोक श्रीवास्तव (जबलपुर), मृत्युंजय (इलाहाबाद), अवधेश त्रिपाठी (नई दिल्ली), शरद (इलाहाबाद), डा. अजीज़ (गोरखपुर), कपिल (दिल्ली), पंकज चतुर्वेदी (कानपुर), आशुतोष कुमार (अलीगढ़), अष्ठभुजा शुक्ल (बस्ती), मदन चमोली (उत्तराखंड), विवेक निराला (इलाहाबाद), राजेंद्र कुमार (इलाहाबाद) की कवितायें फिल्मोत्सव में प्रर्दशित भी की गयीं।

बुश की तानाशाही को अभिव्यक्त करते हुए दुर्गा सिंह ने लिखा, "मंदी में अब कटी नाक जिसको पहले ही काटना था/ व्हाइट हॉउस से अंकल को एक दिन तो जाना ही था/ हुई ज़रा सी देर मगर जूता तो खाना ही था।" जबलपुर के युवा कवि आलोक श्रीवास्तव ने साम्राज्यवाद की हथियार पसंदगी पर टिप्पणी करते हुए लिखा, "ट्रस्ट जहाँ रह्यो जिससे, जिसने मनुजत्व को खूब सतायो/ जाको सदा हथियार रुच्यो, बम-गोला-बारूद-मिसाइल भायो/ ...धन्य अहो! अखबारनवीस जो जूता को हथियार बनायो।" युवा कवि पंकज चतुर्वेदी के शब्दों में, "जूता तो खाना ही था/ इनाम तो पाना ही था/ समझे हो इसको स्वागत/ पर यह नज़राना ही था।" मृत्युंजय ने प्रतिरोध के रूपक जूते को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया, "यह जूता है प्रजातंत्र का नया, नवेला चमड़ा/ ठाने बैठा अमरीका से नव प्रतिरोधी रगड़ा/ जाओ लिबर्टी मैया के घर जूता तो खाना ही था।"

युवा कवि विवेक निराला ने साम्राज्यवादी तानाशाही के खिलाफ जूते के प्रतीक के बारे में लिखा, "सुनो हमारे वक़्त के नदिरशाहों/ बादशाहों/ ..की बहुत खामोश मुल्कों की सड़कों पर/ जब कोई नहीं बोलता/ तो सिर्फ़ जूते बोलते हैं।" डा. अज़ीज़ ने इस घटना पर शेर कहा, "सौ जूतों से कम रुतबाय आली नहीं होता/ इज्ज़त वो खजाना है जो खाली नहीं होता।" उत्तराखंड के मदन चमोली ने लिखा, "कसौटी पर खरे उतरे जूते"। दिल्ली के युवा कवि अवधेश ने अपनी लम्बी कविता इराक की जनता को याद करते हुए आलोकधन्वा की कविता 'सफेद रातें' से आगे की बात लिखी, "कवि आलोकधन्वा सुनें/ यह सफ़ेद रात का आखिरी पहर है/ इस सफ़ेद रात में/ काले जूते के कौंधने के बाद/ सिर्फ़ याद में नहीं है बगदाद/ बगदाद, बगदाद में ही है और लड़ रहा है।" वरिष्ठ कवि, आलोचक राजेंद्र कुमार ने तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिरोधी स्वर की शिनाख्त करते हुए लिखा, "जैदी का जूता/ उस खोपडी की तरफ़ चला/ जिसके भीतर निशस्त्रीकरण और विश्वशांति के नकली नोट छापे जाते हैं/ युद्ध की मुहर के साथ."

गोरखपुर के आम जन ने इस अनूठे प्रयोग को खूब सराहा और प्रतिरोध की इस रचनात्मक अभिव्यक्ति को सिनेमा प्रेमी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। लोग खड़े होकर कवितायेँ पढ़ते रहे और अन्दर सिनेमा हाल में भी कविताओं की चर्चा चलती ही रही.

Saturday, February 7, 2009

सीधी रपट 'गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल' से...

चौथे गोरखपुर फ़िल्म फेस्टिवल की शुरुआत.
- साम्राज्यवाद के दलालों की शिनाख्त ज़रूरी: अरुंधति राय.
-वैश्वीकरण और साम्प्रदायिकता के बीच गहरा रिश्ता: अरुंधति राय
- गिरीश कासरवल्ली की नई फ़िल्म 'गुलाबी टाकीज' से समारोह में फ़िल्म-प्रदर्शन की शुरुआत.

गोरखपुर से सीधी रपट. पाँच फरवरी 2009. 'अमरीकी साम्राज्यवाद से मुक्ति के नाम'. जन-संस्कृति मंच और गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी 'एक्सप्रेशन' की ओर से गोकुल अतिथि भवन में आयोजित चौथे गोरखपुर फ़िल्म उत्सव की आज रंगारंग शुरुआत हुई. इस चार दिवसीय फ़िल्म उत्सव का उद्घाटन अमेरीकी साम्राज्यवाद की मुखर विरोधी रही चर्चित लेखिका अरुंधति राय ने किया. राय ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में साम्राज्यवाद के नए रूपों की पहचान की जरूरत को रेखांकित किया. उन्होनें कहा कि आज के समय में लगता है साम्राज्यवाद का अमेरिकी मॉडल हार रहा है. ओबामा अमेरिकी साम्राज्यवाद के जहाज़ को इमरजेंसी लेंडिंग कराने वाले पायलेट की भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन इस वक़्त साम्राज्यवाद के नए रूपों की शिनाख्त और ज़रूरी हो जाती है. हमें देखना होगा कि इसबार वो कहाँ से, किसका चेहरा धरकर हमारे सामने आता है. बहुत ज़रूरी है कि हम उन छोटी-छोटी लडाइयों को पहचानें जिनका संघर्ष अपने स्तर पर साम्राज्यवाद का मुकाबला कर रहा है. अरुंधति ने नरेन्द्र मोदी और रतन टाटा के हालिया गठबंधन का ज़िक्र करते हुए कहा कि पूँजीवाद और साम्प्रदायिकता का यह रिश्ता बहुत पुराना है. नब्बे के दशक की शुरुआत में हिन्दुस्तान में इन दोनों का प्रभाव एकसाथ बढ़ा है और इन दोनों प्रक्रियाओं का आपस में सम्बन्ध बहुत गहरा है. आज मोदी रतन टाटा को तो मुफ्त बिजली, पानी और लाखों रूपये दे रहे हैं लेकिन गरीब किसान के लिए एक लाख रूपये का क़र्ज़ भी बारह प्रतिशत की ब्याज दर पर है. साफ़ है कि सरकार किसका हित देखती है।

इस अवसर पर गिरीश कासरवल्ली ने आज के समय में सार्थक सिनेमा की जरूरत को और ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बताया और कहा कि इस तरह के सिनेमा को आम जनता ही आगे बढ़ाएगी, सरकार और व्यवस्था के अंग नहीं। उनकी फ़िल्म 'गुलाबी टाकीज' प्रदर्शन समारोह का मुख्य आकर्षण थी. इस मौके पर फिल्मकार संजय काक ने चौथे फ़िल्म समारोह की स्मारिका का लोकार्पण किया।

चौथे गोरखपुर फ़िल्म उत्सव की आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी ने स्वागत वक्तव्य में साम्राज्यवाद विरोध को और नई ऊँचाई तक ले जाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया. संचालन जसम उत्तर प्रदेश के सचिव, युवा आलोचक आशुतोष कुमार ने किया। सत्र के अध्यक्ष मार्क्सवादी विचारक और समकालीन जनमत के प्रधान संपादक रामजी राय ने हाल में फिलिस्तीनी जनता पर इजरायल द्वारा किए गए बर्बर हमले का ज़िक्र करते हुए कहा कि साम्राज्यवाद ने किस तरह की त्रासदी और राजनीतिक समस्यायों को पैदा किया, फिलिस्तीन इसका उदाहरण है. इजरायली बर्बरता को अमरीकी साम्राज्यवाद ही खुलकर शह देता रहा है. उन्होंने कहा कि अमरीका में ओबामा के राष्ट्रपति बन जाने से ही उसकी नीतियों में बदलाव की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. फिलिस्तीन, इराक, अफगानिस्तान, हर जगह अमरीका के आतंकी- विध्वंसक कारवाइयों के ख़िलाफ़ विश्व-जनमत एकजुट होकर मुखर हो रहा है।

आयोजन स्थल पर लेनिन पुस्तक केन्द्र, बिस्मिल पुस्तक केन्द्र, संवाद और समकालीन जनमत की ओर से बुक स्टाल लगाया गया है. 'एक्सप्रेशन' गोरखपुर फ़िल्म सोसायटी द्वारा लगाए गए फ़िल्म और जनगीतों के बिक्री केन्द्र पर भी खूब भीड़ जुटी और लोगों ने बढ़-चढ़कर फिल्मों, आन्दोलन से जुड़े गीतों की सी.डी. और पोस्टर्स की खरीददारी की.

Sunday, February 1, 2009

Road to the 4th gorakhpur film festival.

Dear friends,

4th Gorakhpur film festival is now just four days away. This time we are having a four day festival (5th to 8th February) on the theme of resistance against the new forms of imperialism or as we call it, American imperialism.
We are talking to filmmakers on this common issue. On political cinema. On questions like what is political for them? What is this debate about ‘clean money’ in political documentary filmmaking? How important is distribution for an independent documentary filmmaker?

This time noted documentary filmmaker Paromita Wohra is answering the question, “What is political” and with that talking with us on her films and how 'personal' and 'political' are interconnected.

"It is in
middles that extremes clash, where ambiguity restlessly rules." and from the exploration of that space arise the suggestions of change.


Paromita vohra:~ For me, the political is anything that deals with power and how it is used - it could be the power of the state, the power of movements, the power of language to shape our ideas and thence our lives. Anything that chooses to intervene in this constant flow of power between human beings, genders, organisations, state formation becomes political.

Yes I don't feel there's any ambiguity in the fact that my films are political.I've a great interest in the power of ideas, of discourse to shape the course of events and actions and my films are engaged with the enterprise of re-engaging urban people in the political discussion at a philosophical, rather than an advocacy level. I also feel that the notion that the political is fixed - that there is only one way in which you can be politically engaged ( a sort of broadly connecting to or replicating movement politics and speaking of politics connected to the state) is one of the reasons people easily disconnect from political responsibility and ethics in their lives. So I'm also very interested in overturning this canon of political topics and the rigidity of what we understand to be political; in emphasising that each of our actions and decisions are part of that political flow and asking for a more reflective politics and from there, a more creative political action, perhaps.

The complex relationship between the personal and the political must necessarily be explored and examined constantly in order to present politics as something meaningful and something that each of us is concerned with.

I also think that when we think of intervening in the political enterprise of democracy - then films which work by the logic of proof or evidence of injustice rely on a functioning system of delivering justice. When this does not exist, the documentary cannot confine itself to this idea of exposing injustice alone. It needs to reinvigorate the political discussion, provide an experience of diversity, insist on the presence of multiple viewpoints in order to be politically meaningful.

But I also have to say that for me my films work by the politics of what is not being spoken of - and in the broader discussions of progressive politics, the politics of language don't much get discussed. Eventually it is not what we say, but how we say it that determines the meanings people make. The unwillingness to look at these nuances of power is something that seriously compromises progressive politics. So to an extent I try in my films to constantly bring up that interplay between content and form, between the said and the implied - not only in relation to what the film is about, but in relation to what I see being discussed in the general arena of progressive politics.


All the films don't speak of personal life though - but anyway this very masculinist distinction that personal life is not important is something I find laughable. I think it's very possible, while speaking of personal things and intimate issues to show how they are influenced by and also influence the larger equations of class, caste, gender that drive power.


And because it is about this interplay, the films often have a playful form, a hopscotch feel between different registers.