Monday, November 2, 2009

दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह : दमन के विरुद्ध एक सांस्कृतिक पहल




· ’दम, प्रतिरोध और सिनेमा’ की थीम पर दूसरा लखनऊ फ़िल्म समारोह 11 से 13

सितम्बर को लखन की संगीत नाट अकादमी की वाल्मिकी रंगशाला में सम्पन्न. समारोह का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्मकार आंनद पटवर्धन द्वारा.


· युवा फ़िल्मकार अधिक से अधिक वृत्तचित्र बनाएं. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे रचनाकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहिये : विष्णु खरे


· जंग और अमन, राम के नाम, परज़ानिया, ख्याल दर्पण, द अदर साँग, बायसिकल थीफ़, ब्लड एन्ड ऑयल, नियमराजा का शोकगीत, नोलिया शाही, अशेन लाइफ़, जैसा बोओगे वैसा काटोगे जैसी फ़िल्मों के साथ हिरावल के गीतों की गूँज.


लखनऊ में आयोजित होने वाला यह दूसरा फ़िल्म महोत्सव था और स्वाभाविक था कि इस बार इसके लिए उत्सुक़्ता और उम्मीद दोनों ही ज़्यादा थी. 11 से 13 सितम्बर 2009 को आयोजित हुए इस फ़िल्म महोत्सव का मुख्य थीम ’दमन, प्रतिरोध और सिनेमा’ था. इस बार का फ़िल्म उत्सव प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक तपन सिन्हा, पाकिस्तान की लोकप्रिय गायिका इक़बाल बानो और प्रसिद्ध रंग निर्देशक हबीब तनवीर को समर्पित था.

तीन दिन तक चलने वाले इस समारोह में जहाँ एक दर्जन से ज़्यादा फ़ीचर और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में दिखाई गईं वहीं फ़िल्म, कला और साहित्य से जुड़े संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिरोध के सिनेमा और संस्कृति के वैचारिक पहलुओं और व्यव्हारिक पक्षों पर चर्चा की. जसम के फ़िल्म समूह ’द ग्रुप’ के संयोजक, युवा फ़िल्मकार संजय जोशी का कहना था कि ’प्रतिरोध का सिनेमा’ कोई उत्सव नहीं बल्कि जनता का सांस्कृतिक आन्दोलन है और एक सपने के सच होने की शुरुआत है. यह आन्दोलन बिना कर्पोरेट, एन.जी.ओ., सरकारी स्पॉन्सरशिप के जनता की शक्तियों पर निर्भर होकर चलाया जा रहा है. अब तक नौ फ़िल्म उत्सव इस क्रम में जसम की ओर से आयोजित हो चुके हैं.

फ़िल्मोत्सव का उद्घाटन प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक आनन्द पटवर्धन ने किया. उद्घाटन सत्र के मुख्य वक्ता थे हिन्दी के वरिष्ठ कवि और सिनेमा आलोचक विष्णु खरे. उन्होंने अपने उद्घाटन वक्तव्य में यह मुद्दा उठाया कि दमन का प्रतिरोध करने वालों को हमेशा ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा है. लोग विरोध करना चाहते हैं. उनके पास मुद्दे हैं, समझ भी है लेकिन उसे फ़िल्माने के लिए साधन नहीं हैं. हमारे पास ऐसा आर्थिकतंत्र नहीं है जिससे हम प्रतिरोध का सिनेमा बना सकें. राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम जैसी संस्थाएं सत्ता के कब्ज़े में हैं. उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती. इस हालत में ज़रूरी है कि युवा फ़िल्मकार ज़्यादा से ज़्यादा वृत्त चित्र बनाएं. स्कूल-कॉलेज के बच्चे आगे आएं और जन समस्याओं को लेकर फ़िल्में बनाएं और प्रोजेक्टर से फ़िल्में दिखाएं. दलित सिनेमा को प्रोत्साहन मिलना चाहिए. भगवानदास मोरवाल और ओमप्रकाश वाल्मिकी जैसे साहित्यकारों की रचनाओं पर फ़िल्में बननी चाहियें. प्रतिरोध का सिनेमा इसी रास्ते से आगे बढ़ सकता है. उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और कवि व फ़िल्म समीक्षक अजय कुमार ने की.

फ़िल्म समारोह की शुरुआत अपने जनगीतों और प्रयोगधर्मी नाटकों के लिए मशहूर हिरावल, पटना की गायन से हुई. इस अवसर पर हिरावल ने फ़ैज़ की नज़्म “बोल के लब आज़ाद हैं तेरे”, दिनेश कुमार शुक्ल की कविता “जाग मेरे मन मछन्दर” तथा वीरेन डंगवाल की कविता “हमारा समाज” की संगीतमय प्रस्तुति दी. हिरावल के गीतों और कविताओं का विस्तार के पी ससि के म्यूज़िक वीडियो “गाँव छोड़ब नाहिं” में देखने को मिला जो विकास के नाम पर विस्थापित किए जा रहे आदिवासियों के प्रतिरोध को स्वर देता है.

लखनऊ फ़िल्मोत्सव में आनंद पटवर्धन की दो मशहूर फ़िल्में “राम के नाम” तथा “जंग और अमन” दिखाई गईं. इनका परिचय अजय कुमार ने दिया. उन्होंने कहा कि आनंद पटवर्धन न सिर्फ़ हमारे समय के विशिष्ठ फ़िल्मकार हैं बल्कि सिद्धान्तकार भी हैं. पटवर्धन ने ही मुम्बईया सिनेमा के सामने गुरिल्ला सिनेमा जैसा कॉन्सेप्ट रखा. “जंग और अमन” में पटवर्धन निर्लज्ज सैन्यवाद की ओर भारतीय उपमहाद्वीप की दौड़, युद्धोन्माद और परमाणु हथियारों की होड़ को बड़ी पीड़ा के साथ रेखांकित करते हैं और साथ ही इनके खिलाफ़ हो रहे प्रतिरोध को भी दिखाते हैं. आनन्द पटवर्धन की दूसरी फ़िल्म “राम के नाम” बाबरी मस्जिद विध्वंस की तपिश को महसूस करती फ़िल्म है. दोनों फ़िल्मों के बाद आनन्द पटवर्धन ने दर्शकों से बात की और उनके सवालों का जवाब दिया.

साम्प्रदायिक हिंसा के जिस तपिश का अहसास आनन्द पटवर्धन की फ़िल्में कराती हैं उसी का विस्तार राहुल ढोलकिया की “परज़ानिया” में दिखता है. यह फ़िल्म गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए अल्पसंखयकों पर हमलों की दुखद दास्तान बयाँ करती है. यूसुफ़ सईद की “खयाल दर्पण” पाकिस्तान में प्रवाहित होती शास्त्रीय संगीत की यात्रा का चित्रण है. यह फ़िल्म भारत और पाकिस्तान के बीच सांस्कृतिक एकता की जड़े तलाशती हुई अच्छे रिश्तों की उम्मीद जगाती है. सबा दीवान की फ़िल्म “द अदर साँग” बनारस की मशहूर गायिका रसूलन बाई के लुप्त गीत की खोज के ज़रिए उनकी और उन जैसी तवायफ़ों के जीवन के तमाम पहलुओं को सामने लाती है. इन फ़िल्मों का परिचय जाने-माने नाटककार राजेश कुमार तथा संजय जोशी ने दिया.

लखनऊ फ़िल्म समारोह में विक्टोरिया डि सिका की मशहूर फ़िल्म “बाएसिकल थीफ़” भी दिखाई गई. इस क्लासिक फ़िल्म का परिचय विष्णु खरे ने दिया. यह फ़िल्म दूसरे विश्व युद्ध के बाद के रोम की कहानी कहती है और गरीबों का दर्द बयाँ करती है. सिनेमा की दुनिया में “बायसिकल थीफ़” कालजयी फ़िल्म है. इस फ़िल्म ने दुनिया भर के सिनेमा निर्देशकों को प्रभावित किया जिनमें हिन्दुस्तान के बिमल राय तथा सत्यजित राय भी शामिल हैं. इसके बाद जर्नलिस्ट माइकल टी क्लेयर की फ़िल्म “ब्लड एंड ऑयल” दिखाई गई. यह फ़िल्म अमेरिका की गोपनीय ऑयल पालिसी केन्द्रित विदेश नीति की परतें खोलती है. युवा पत्रकार मनोज सिंह ने इस फ़िल्म का परिचय दिया.

समारोह के तीसरे दिन सुबह का सत्र बच्चों के नाम था जिसकी शुरुआत हिरावल की बाल कलाकार रुनझुन के गीतों से हुई. इसके बाद राजेश चकवर्ती निर्देशित एनिमेशन फ़िल्म “हिप हिप हुर्रे” दिखाई गई. इस फ़िल्म के लिए बहुत प्यारे गीत जावेद अख़्तर ने लिखे हैं. अरुण खोपकर की फ़िल्म “हाथी का अण्डा” भी दिखाई गई. फ़िल्मों का परिचय कवि भगवान स्वरूप कटियार और संस्कृतिकर्मी के के वत्स ने दिया.

फ़िल्म उत्सव का एक महत्वपूर्ण सत्र उडीसा में चल रहे आन्दोलन पर बनी फ़िल्मों का था. सूर्यसंकर दास की “नियमराजा का शोकगीत” “मनुष्य का अजायबघर” “शहीद”, नीला माधव नायक की “अशेन लाइफ़” तथा मानस मृदुली और संजय राय की “नोलिया साही” दिखाई गईं. यह फ़िल्में उडीसा की जनपक्षधर संस्था “समदृष्टि” द्वारा बनाई गई हैं. इस अवसर पर निर्देशक सूर्यशंकर दास मौजूद थे. उन्होंने कहा कि वे फ़िल्में फ़िल्मोत्सवों में दिखाने के लिए नहीं बनाते बल्कि पीड़ित जनता के लिए बनाते हैं.

समारोह में लघु फ़िल्मों का भी एक सत्र था. गीतांजलि राव की प्रशंसित फ़िल्म “प्रिंटेड रेनबो” दिखाई गई. मैला ढोने वाली महिला की कहानी पर बनी फ़िल्म “पी” दिखाई गई जिसका निर्देशन आर पी अमुधन के किया है. “जैसा बोओगे, वैसा काटोगे” दिखाई गई जिसका निर्देशन अजय भारद्वाज ने किया है. संजय प्रताप तथा अश्विनी फलनिकर की “रिमेम्बरिंग इमरजैन्सी” दिखाई गई.

लखनऊ फ़िल्म उत्सव में एक सत्र समकालीन भारतीय कला पर भी था. इस सत्र में सुप्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने “समकालीन भारतीय कला में जनपक्षधर प्रवृतियाँ” पर अपना व्यख्यान दिया. चित्रकार अशोक भौमिक के कलाकर्म पर परिचयात्मक टिप्पणी कवि वीरेन डंगवाल ने प्रस्तुत की. जसम फ़िल्मोत्सव का समापन हिरावल द्वारा गोरख पांडे के गीत “समय का पहिया चले रे साथी” की प्रस्तुति और लेखक, पत्रकार अनिल सिन्हा के समापन वक्तव्य से हुआ. अनिल सिन्हा का कहना था कि समय और समाज की वास्तविकताओं से दूर जिस अपसंस्कृति व क्रूरता को समाज में फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है उसके विरुद्ध सिनेमा कहाँ खड़ा है यह हमने यहाँ दिखाने की कोशिश की. इस तरह के कलात्मक प्रयासों द्वारा ही हम सुन्दर, सुसंसकृत और बराबरी वाले समाज की ओर कदम बढ़ा सकते हैं.

इस मौके पर “दमन, प्रतिरोध और सिनेमा” स्मारिका तथा चित्त प्रसाद के नौ चित्रों का लोकार्पण भी हुआ. इस समारोह में सिनेमा के साथ साथ संस्कृति की अन्य विधाओं जैसे संगीत, गायन, चित्रकला का जो मिला-जुला रूप सामने आया वह जन संस्कृति मंच की इस अवधारणा को ही अभिव्यक्त करता है कि प्रतिरोध की संस्कृति जितनी ही बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी उतनी ही उसमें विविधता, सुन्दरता, समरसता होगी.

No comments: