फ़िल्मों में बिखरी प्रतिरोध की चेतना को प्रतिरोध की कारगर शक्ति बनाने का सांस्कृतिक अभियान
Wednesday, March 23, 2011
छठें गोरखपुर फ़िल्मोत्सव में दिखाई जाने वाली कुछ फिल्मों की के बारे में
द अदर सांग
निर्देशक - वसुधा जोशी
मुन्नी शीला की बदनामी और जवानी पर उछलकूद करने वाले इस दौर में यह फिल्म एक ठुमरी के ऐसे पाठ की खोज कर रही है जो स्त्री के काम की अभिव्यक्ति का सूक्ष्म और स्थूल दोनो पक्षों का पाठभेद है। ‘फुल गेन्दवा न मारो लगत करेजवा में चोट’ - इस बनारस अंग की भैरवी ठुमरी का एक पाठ रसूलन बाई ने 1935 में ध्वन्यंकित किया था जो इस प्रकार है - ‘फुल गेन्दवा न मारो लगत जोबनवा में चोट’। करेजवा मूल पाठ है कि जोबनवा और प्रसिद्ध ठुमरी गायिका रसूलन बाई ने करेजवा की जगह जोबनवा क्यों गाया?
इस सूत्र को लेकर सबा दीवान जों इस फिल्म की निर्देशिका है ठुमरी जगत की यात्रा करती है। पर्त दर पर्त खुलती जाती हैं और दर्शक एक ऐसे स्त्री कलाकार समूह के अंतरंग और बहिरंग जीवन से रूबरू होते हैं जिनको समाज के नैतिक ठेकेदारों ने सम्मान जनक जीवन जीने से भी वंचित कर दिया। ये कलाकार रईसों की महफिलों की रौनक थीं आज गुमसुम जीवन बिताने पर मजबूर हैं। रसूलन बाई अपने समय की श्रेष्ठ ठुमरी गायिका रही हैं लेकिन भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान दलितों का उद्धार करने वाले भारत के राष्ट्रपिता गांधी जी ने इन दलित स्त्रियों के आन्दोलन से जुडने के प्रस्ताव को भी यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि वे नैतिकता विहीन हैं और उनका धन और श्रम चोरी का है क्योंकि उन्होंने नैतिकता की चोरी की है। नियति की विडंबना यह है कि रसूलन बाई को अन्ततः महात्मा गांधी के नगर अहमदाबाद ले जाती है जहां उनकी खोई शोहरत उन्हें पुनः प्राप्त होती है।
फिर हिन्दू-मुस्लिम दंगों से प्रताडित होकर वे इलाहाबाद पहुंचतीं है और आकाशवाणी केन्द्र के रास्ते पर छोटी सी दुकान लगाकर अपनी जीवन की संध्या समय व्यतीत करती हैं। रसूलन और उन जैसे अनेक कलाकारों की सामाजिक आर्थिक कलात्मक जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालती है यह फिल्म - द अदर सांग। स्त्री विमर्श से सरोकार रखने वाले हर संवेदनशील व्यक्ति को यह फिम जरूर देखनी चाहिए.
द एडवोकेट
निर्देशकर- दीपा धनराज
भारत में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों की स्थापना करने वालों में के जी कन्नावीरन अगुवा थे. एक व्यक्ति की जीवनी और हमारे समय के इतिहास के धागों से बुनी यह फिल्म भारतीय राज्य को शासन, न्याय और राजनैतिक कार्यवाहियों में कानून का राज लागू करने के लिए चुनौती देने वाले कन्नावीरन के अविस्मरणीय योगदान को रेखांकित करती है.
1978 से 1994 तक आन्ध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमेटी के अध्यक्ष रहते हुए कन्नावीरन ने इसके कामों को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाई. कंसर्नड सिटिजन कमेटी की स्थापना करने वालों में से एक कन्नावीरन ने आन्ध्र प्रदेश सरकार और माओवादी पीपुल्स वार ग्रुप के बीच शान्ति वार्ता में मध्यस्थता की. १९९४ में वे पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद के लिए चुने गए जिसका निर्वाह उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक किया.
मैं तुम्हारा कवि हूँ
निर्देशक- नितिन के.
इस फिल्म को कविता पर भी होना था और कवि पर भी किन्तु यह एक ऐसे व्यक्ति की कथा बन जाती है जो कविता में रहता है।
हम व्यक्ति को समझने की कोशिश करते हैं तो कविता दिखने लगती है और कविता में व्यक्ति सामने आ खड़ा होता है। अंततः जब धीरे-धीरे दोनों के विषय में कुछ पता चलता है तो आपके सामने एक आइना होता है। आइने में एक खुरदुरे जीवन के भीतर पलता मासूम-सा निर्दोष स्वप्न झांकने लगता है। कविता रास्ता दिखाने लगती है और रास्ता धीरे-धीरे कविता में बदल जाता है।
विद्रोही अपने बारे में फैली किंवदंतियों के बीच पिछले दो दशकों से भी ज्यादा से जेएनयू के नागरिक हैं। उनकी ज़रूरतें बेहद कम हैं और चाय-पानी, नशा-पत्ती का खयाल उनके चाहने वाले रख ही लेते हैं। छत जे.एन.यू में कहीं भी मिल जाती है। विद्रोही ने कविता कभी लिखी नहीं, वे आज भी कविता कहते हैं। उनके सोचने का तरीका ही कविता का तरीका है। कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं; खुद को और सबको संबोधित करते हैं; चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गरियाते हैं, संकल्प लेते हैं। विद्रोही हमारे अवंचित राष्ट्र के कवि हैं, उन लोगों के कवि जिन्हें अभी राष्ट्र बनना है।
गाडेसेज : तीन औरतें
निर्देशक- लीना मणिमेक्कलइ
भारतीय डाक्यूमेंट्री गाडेसेज पिछले वर्षों में दिखाई देने वाली बेहतरीन डाक्यूमेंट्री फिल्मों में एक है. निर्देशक लीना मणिमेकलै पेशे से इंजीनियर होने के बावजूद मीडिया में काम-काज का तजुर्बा रखती हैं और वे डिजिटल फिल्म निर्माण, उत्पादन और सम्पादन के रचनात्मक पहलुओं को बखूबी समझती हैं.
लीना की गाडेसेज कोई साधारण फिल्म नहीं है. एच डी पर 2007 में बनाई गयी यह फिल्म 42 मिनट की है. आपको झकझोरने और आपकी दिलचस्पी बनाए रखने से आगे यह फिल्म आपको बताती है कि आजीविका का लिए न्यूनतम संसाधनों में रहते हुए भी भारत की स्त्रियाँ और क्या हासिल कर सकती हैं. गाडेसेज शुरुआत से ही अपने अनोखे चरित्रों की वजह से दर्शक को अपनी पकड़ में ले लेती है. भड़कीली और मैली कुचैली साडि़यों में लिपटी फिल्म की नायिकाएं वृद्ध हैं, कुरूप हैं, मैली-कुचैली और मोटी-झोटी हैं. ये ऐसी महिलायें हैं जिन्हें आप देखना पसंद नहीं करते- आइये फिल्म के जरिये ही इनसे एक अच्छी मुलाकात करते हैं.
लीना या किसी और को इन महिलाओं पर फिल्म क्यों बनानी चाहिए! जवाब यह कि परदे पर ये महिलायें बेहद दिलचस्प चरित्र दीखती हैं. तामिलनाडु के निचले वर्गों से आने वाली इन अकेली और बहादुर महिलाओं को इसकी कोई परवाह नहीं. वे सिर्फ पेट भरने भर का कमा पाती हैं पर उस कम कमाई में से भी दूसरों की मदद करती हैं. वे कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर रहीं, या तमिलनाडु के समाज को बदल नहीं रहीं. वे जी रहीं हैं और जो वे कर रहीं हैं उससे अभी भी एक उद्देश्य की तरफ ही बढ़ रही हैं.
लक्ष्मी मातम में गाने और नाचने वाली एक एक पेशेवर रुदाली हैं. असल में तमिलनाडु में मृत्यु संस्कार पर पेशेवर विलाप करने वालों को बुलाये जाने की रवायत है. जैसे जैसे लक्ष्मी नगाड़े के कानफाडू शोर पर नाचती है, गाती है, अपनी छाती पीटती है, वैसे वैसे मृतक के परिवार वाले आंसू बहाते हैं और अपनी छाती पीटते हैं. मृत दादी की लाश के सामने यह सब बेहद रूग्ण और विकृत लगता है.
फिल्म की दूसरी नायिका हैं कृष्णवेणी जिनकी जिन्दगी नदी और गलियों में मिली लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार करने से चलती है. कृष्णवेणी इन लाशों को एक टूटी फूटी गाड़ी में ढ़ोती हैं. वे ही इन शवों का अंतिम संस्कार करती हैं. गाँव के बाहर वे गड्ढा खोदती हैं और कभी किन्ही पुरुषों के साथ और कभी अकेले लाशों को दफनाती हैं. दिन ब दिन बिना भावुकता, बिना भावना और बिना दुःख, सीधे-सीधे अंतिम संस्कार संपन्न किया जाता है. कृष्णवेणी अपने दिल की बात कैमरे के आगे बताती हैं कि पुरुषों की इस कठोर दुनिया में वे कैसे जिंदा हैं. वे उन पुरुषों को कोसती हैं जिन्होंने अपनी जिस्मानी जरूरतों और हवस के लिए वर्षों उनका उपयोग किया. और तब वे उनसे उन्हीं की भाषा में पलट कर बात करती हैं. कसाईबाड़े में भी वे काम कर चुकी हैं और आस पास के सारे पुलिस वालों को वे जानती हैं. शुरू से ही सड़कों पर हैं और इसीलिये इतनी चतुर हैं.
तीसरी नायिका सेतुराकु ने स्कूल का मुंह नहें देखा. बजाय इसके वे बचपन से ही समुद्र के पास रहीं. अब वे वृद्ध हो गयी हैं और पुरुषों का काम कहे जाने वाले मछली पकड़ने के धंधे से अपना जीवन यापन करती हैं. वे मछली पकड़ने अकेली समुद्र जाती हैं, जिसकी कोई दूसरी औरत कल्पना भी नहीं कर सकती. दुसरे तो मछली पकड़ने के आधुनिक साजो सामान और मशीनों का इस्तेमाल करते हैं, ऐसे में कभी कभी वे खाली हाथ लौट आती हैं और छोटी सीपियों को गूंथ कर सस्ती माला बनाती हैं जिससे खाने के लिए मांस का जुगाड़ होता है.
निर्देशक ने इन महिलाओं को उनकी चटकीली चेष्टाओं, और गली मुहल्लों की जोरदार आवाजों के साथ यथार्थ में पकड़ा है. गाडेसेज एक जोखिम भरी पर ताकतवर कहानी है जिसे कोई विरला फिल्मकार ही फिल्मांकित करने के लिए चुनेगा. लीना मणिमेकलै ने इस काम को बिना किसी अतिरिक्त निर्माण प्रभाव और चमक-दमक वाली फिल्म तकनीक के बेहद सहजता और बुद्धिमत्ता से किया है.
व्हेन वीमन यूनाईट
निर्देशन- शबनम विरमानी और नाता दुव्वुरी
यह फिल्म राज्य द्वारा सप्लाई की जाने वाली शराब के खिलाफ चले आंदोलन की अविश्वसनीय-सी लगने वाली कहानी कहती है जिसके नतीजे के बतौर 1995 में आंध्र प्रदेश में अन्ततः अरैक की बिक्री पर रोक लगानी पड़ी थी। इस आंदोलन की शुरूआत तब हुई जब साक्षरता अभियान में भाग ले रही महिलाओं के एक समूह ने अपनी दबी हुई पिछड़ी स्थिति के बारे में सवाल करने शुरू किए। गांव की एक महिला की हत्या से इनकी कार्रवाई में गति आ गई ;इस औरत की हत्या उसके नशे में धुत्त पति द्वारा बेतहाशा पिटाई के कारण उस समय हुई, जब वह अपनी बेटी को पति द्वारा की जा रही छेड़छाड़ से बचाने की कोशिश कर रही थी द्ध। वे इस बहादुरी भरे आंदोलन में गांव के उस आदमी, अरैक के उंची पहुंच वाले ठेकेदार और दमनकारी राज्य मशीनरी के खिलाफ उठ खड़ी हुईं।
उनके आंदोलन की यह मांग थी कि उनके गांव में अरैक की अंधाधुंध सप्लाई को रोका जाय ;इस गांव के एकमात्र नल में पानी की सप्लाई तो दो दिन मे एक बार ही आती थी, पर अरैक की दुकान पर शराब की सप्लाई दिन में दो बार होती थीद्ध। लड़ाई के चार सालों मे आंदोलन ने जोर पकड़ा और यह पूरे राज्य में फैल गया। सही मायनों में यह जमीनी आंदोलन था; आज भी इस आंदोलन की किसी विशेष नेता के बारे में नहीं पता चलता है। यह फिल्म इन महिलाओं के अविश्वसनीय साहस, उनकी राजनीतिक और सामाजिक समझदारी और इस दृढ़ अनुभूति को सामने लाती है कि संघर्ष के द्वारा वे अपने भाग्य को जीत सकती हैं।
मालेगांव का सुपरमैन
निर्देशक - फैजा अहमद खान
यह वृत्तचित्र फिल्मों के प्रति प्रेम, उत्साह से भरे शौक और एक भारतीय सुपरमैन के बारे में है। ‘मालेगांव का सुपरमैन’ भारत के भुला दिए गए सुदूर मालेगांव नाम के ही छोटे-से कस्बे में रहने वाले फिल्म निर्माण के शौकीन एक ग्रुप की कहानी है। ये सुपरहिट फिल्मों की पैरोडी बनााना पसंद करते हैं और फिल्म निर्माण उनके लिए धार्मिक तनावों और आर्थिक कठिनाइयों से भागने का मजेदार रास्ता है। हाजिरजवाब, दिल को छूने वाली ओर मजेदार यह फिल्म सुपरमैन की शूटिंग की तैयारियों पर केंद्रित है- उनके इस वर्णन में हाॅलीवुड और बाॅलीवुड आपस में एक-दूसरे को काटते हुए हैं। हरी स्क्रीन और अभिनय न कर सकने वाले कलाकारों के साथ काम करने के कारण शूटिंग के समय उन्हें कई कइिनाइयों का सामना करना पड़ता है, पर अन्त में वे सुपरमैन को उड़ना भी सिखा ही देते हैं। हल्के हास्य का प्रयोग करते हुए यह फिल्म वर्तमान भारत के अंतर्विरोधों पर रोशनी डालती है और इस विश्वास को आगे बढ़ाती है कि जीवन में आनंद इसे सहज और ज्यादा बेहतर बना देता है।
व्हेयर हैव यू माई न्यू क्रिसेन्ट मून ?
निर्देशक- इफत फातिमा
यह फिल्म सन 2009 में ‘आधी विधवाएं’ नाम से चल रहे अभियान के अन्तर्गत कश्मीर में लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन के सहयोग से बनाई गई। यह उन परिवारों के सदस्यों का संगठन है जो कश्मीर में अपने लापता परिजनों से सम्बन्धित जानकारी की तलाश में हैं। इनमें अधिकांश लापता होने के लिए बाध्य पीडि़तों की मांएं और बीवियां हैं। ।च्क्च् के कश्मीर और कश्मीर से बाहर लोगों के गायब होने के खिलाफ मुहिम को मदद करने के उद्ेदश्य से इस ‘आधी विधवाएं’ अभियान की शुरूआत 2006 में हुई। वृत्तचित्र फिल्मों के निर्माण के माध्यम से यह अभियान उन महिलाओं के लिए स्थान मुहैया कराने और हिंसा के उनके निजी अनुभवों को व्याख्यायित करने के लिए प्रयासरत है, जिनकी आवाजें वृहद राजनीतिक और फौजी आख्यानों के नीचे दबा दी गई हैं। यह फिल्म मुगलमासी और न्याय व परिवर्तन के लिए उनकी अनवरत खोज को समर्पित है। यह फिल्म यादों, हिंसा और जख्मों के भरने जैसे मुद्दों को सामने लाती है। मुगलमासी कश्मीर के श्रीनगर जिले के हब्बा कदल नाम की जगह पर रहती थीं। पहली सितम्बर, 1990 को उनका इकलौता बेटा नाजिर अहमद तेली लापता हो गया और फिर कभी नहीं मिला। वह अध्यापक था। अप्रैल, 2009 में फिल्म निर्माता ने उनके साथ एक दिन गुजारा, और ...
सब्जी मण्डी के हीरे
निर्देशक- निलिता वाछानी
तरह-तरह के सामान बेचने वालों की भीड़ भारत के अन्तर्राज्यीय बस स्टैंड पर, उनके अपने ही बहुरंगी जीवन कथा की तरह सामानों के बेचने पर मचा युद्ध। खाने के सामानों से लेकर गले के हार, दवा की गोलियां और पेय औषधि तक, सब कुछ। यह लिस्ट कहीं खत्म नहीं होती, सस्ते दामों में मिलने वाले ये सामान अक्सर किसी काम के नहीं होते। कठिन काम, ठसाठस भरीं बसें और दिन लम्बे, निर्दयी। ये सामान बेचने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि उनका सामान नहीं, बल्कि उनका प्रदर्शन बिकता है। तो फिर बसों के रास्ते स्टेज में तब्दील हो जाते हैं जहां ये अभिनेता होते हैं। बालीवुड की फंतासियों में बड़े हुए ये अभिनेता कुछ समय के लिए लाइमलाइट में आ जाते हैं, और किसी तरह से रोजी का जुगाड़ हो जाता हैं।
‘सब्जीमण्डी के हीरे’ अपने चरित्रों के माध्यम से पर्दे के पीछे की भारत की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की पड़ताल करती है। इनमें पहला चरित्र अफसर है, जो कि मेहनती कम्पाउन्डर है ये कुछ-कुछ चीजें मिलाकर बाम पाउडर और पाचक तैयार करता है; दूसरा शकील, अपनी ही तरह का मौजी, जो जीविका के लिए गाना गाने से लेकर आंखों की सजावट के सामान बेचने तक के पेशे में अदला-बदली करता रहता है और तीसरा हशमत, जो अपने ही किए गए जादू के तरीकों के भेद खोलने वाली किताब फेरी लगाकर बेचता है। फिल्म स्टेज के सामने से बैकस्टेज तक लगातार घटती रहती है। उस तीखी टूटन को सामने लाती हुई जो सार्वजनिक को निजी से अलग करती है।
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