Thursday, March 24, 2011

कुछ और फिल्मों के बारे में

सिटी आफ फोटोज़
निर्देशक- निशिता जैन

सिटी आफ फोटोज़ भारतीय शहरों में पास-पड़ोस के सामान्य से, बहुत कम ध्यान जाने वाले फोटो स्टूडियों के बारे में बात करती है। उन छोटी-सी जगहों के सम्पूर्ण कल्पित संसार की खोज करती है। छोटे-छोटे, टूटे-फूटे ये स्टूडियो जो एक समय में ठुंसे-ठुंसे अटके हुए से दिखते हैं, वही ऊर्जा से लबालब जगहों में तब्दील हो जाते हैं। यहां आने वाले लोगों की तरह ही ये स्टूडियो आश्चर्यों से भरे हुए होते हैं। यहां अपनी पृष्ठभूमि के बरक्स पोज़ देकर और मनपसंद वस्तुओं के साथ फोटो खिंचवाकर लोग खुश हो लेते हैं। ये लोगों की कल्पनाओं और लोकप्रिय रूचियों की दिलचस्प झलक देते हैं।

हालांकि इन मजे और खेलों के नीचे आने वाले दुःख की एक छाया चलती रहती है। सबको फोटो खिंचवाने का चाव नहीं रहता और न ही प्रत्येक पृष्ठभूमि खूबसूरत ही होती है। ये सारी फोटो खुशी के मौके पर ही खींची गईं नहीं होतीं। वे शहर जिनमें ये कहानियां खुलती हैं, स्वयं में पृष्ठभूमि होते हैं, उनकी पथरीली शहरी सच्चाई फोटो में नज़र आने वाली जगहों का पूरक बनाती हैं। इच्छाएं, स्मृतियां और कहानियां ये सभी फोटोग्राफी के अनुभवों से इतने गहरे रूप में जुड़ी हैं कि ‘सिटी आफ फोटोज़’ में वे व्यक्तिगत यात्रा के बतौर आती हैं।


सबद निरंतर

निर्देशक - राजुला शाह

सबद निरंतर, शब्द के भीतर शब्द की खोज है; यह सत्य के आकारहीन सार पर सधा हुआ प्रतिबिम्ब है जो जीवंत अनुगूंज, दुनिया के बारे में अलग-अलग समझदारियों का लगातार और नियत आदान-प्रदान, देशज स्वभाव के काल विशेष और उनकी भावनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त की गई है और इसकी अमर प्रतिध्वनि उभरते हुए आधुनिक जीवन को जीवनी प्रदान करती रहती है।

यह फिल्म भक्ति आंदोलन को विस्तारपूर्वक समझना चाहती है। भक्ति आंदोलन 12वीं सदी के भारत के सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक इतिहास के लिहाज से महत्वपूर्ण पन्ना है। इस समय में मध्यकालीन गूढ़ भक्त कवि जैसे-कबीर, गोरखनाथ, भक्त कवि मीरा, सहजोबाई और दूसरे कई धरती के अभागे इस दुखी धरती पर फले-फूले और इतिहास द्वारा तहस-नहस की गई इस प्राचीन भूमि पर, सामाजिक और दार्शनिक टूट-फूट के पार, एक सशक्त संवाद स्थापित करने के लिए आगे आए। एक प्रवाह के साथ अपनी यात्रा का आरम्भ करते हुए यह फिल्म युगचेतन आदिम स्वरों के भीतर सवालों की खोज करती है और उन रूढ़िवादी, पक्षपाती अंधे मापदंडों को नष्ट करती है, जिनसे ज्ञान, भूत और वर्तमान को मापने की कोशिश करता है।


मेरा अपना शहर
निर्देशक - समीरा जैन

दिल्ली, एक शहर जो देश की राजधानी है, उस शहर में अनुभव लिंगाधारित शहरी माहौल का - जहां आपकी नजर, आवाज और शरीर पर हर पल पहरा रहता है। क्या हो जब चारों ओर लगा यह पहरा की खुद अपनी तरफ ही घूम जाए और रोज ब रोज की एक जांच करे।

फिल्म सवाल खड़े करती है कि क्या शहर के साथ किसी तरह के करीबीपन का, अधिकार का, कहीं, कोई एहसास है? क्या इस शहर में एक महिला, जो लगातार परेशानियों और सुकून के दो विपरीत ध्रुवों के बीच तालमेल बिठाने की कोशिश करती रहती है- आजाद हो सकती है?



मोरलिटी टीवी और लविंग जेहाद
निर्देशक- पारोमिता वोहरा

2005 की सर्दियों में भारतीयों ने एक और ब्रेकिंग न्यूज देखने के लिए अपने टी.वी. आन किए, पर एक खबर ने उन्हें चौंका दिया। मेरठ शहर में पुलिस अफसरों ने, जिनमें से अधिकांश महिला पुलिस अधिकारी थीं, एक पार्क में प्रेमी युगलों पर हमला बोला और उनकी पिटाई कर दी। वे अपने साथ फोटोग्राफरों और समाचार चैनलों के कैमरामैन को भी इस वायदे के साथ ले गई थीं कि उन्हें एक एक्सक्लूसिव स्टिंग आपरेशन भी मिलेगा।

इस न्यूज स्टोरी के पीछे की कहानी क्या है़ ? यह फिल्म फ्रेम के बाहर झांकने की कोशिश करती है जहां भारतीय समाचार चैनलों पर एक शहर के जटिल गतिविज्ञान को सामने लाने के लिए ब्रेकिंग न्यूज की अतिउत्तेजित कसीदाकारी चल रही है- शहर का जटिल गतिविज्ञान जिसमें प्रेम का भय, महिला की गतिशीलता और उसकी यौनिकता की लगातार जांच और उस पर नियंत्रण, सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास, पाश्विक जातियता और सामंती गणित आदि शामिल हैं। सस्ती पत्रिकाओं के धृष्ट लहजों और सनसनीखेज पत्रकारिता के लक्षणों का इस्तेमाल करके इस तरह की कथा कहने की परम्परा की पड़ताल की गई है। यह फिल्म मनोहर कहानियां जैसी मसालेदार सच्ची अपराध पत्रिका से लेकर दोहरी नैतिकता वाली सस्ती पत्रिकाओं और भारतीय टीवी की सनसनीखेज पत्रकारिता तक की इनकी अपनी रोमांचक लेकिन तकलीफदेह कथा को खोलती है।

आज की तारीख में जबकि अश्लील हो चुका मीडिया पहले से कहीं ज्यादा नृशंस तरीकों से होने वाली हिंसात्मक घटनाओं के पीछे पागल हो रहा है तो फिल्म की कथा और ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है।


पी.ओ. बॉक्स 418, सियासत कानपुर
निर्देशक- साजिया इल्मी

ये फिल्म एक निगाह है उर्दू जबान पर जो हमारी नजर के सामने ही अपने वजूद से फना हो रही है। उर्दू का एक जमाना था। शुमाली हिन्दुस्तान में तालीम और रौशन मुस्तकबिल का जरिया थी उर्दू। अब सिर्फ जिक्र ही रह गया है, उस जबान का जो कभी इल्मी व अदबी जबान थी, अवामी इजहार और शायराना अंदाज की जबान थी, एक आला तहजीब की जबान थी।

शुमाली हिन्दुस्तान के शहरों व कस्बात, स्‍कूल और घरों से इस रस्मलुखत़ का नामोनि‍शान ही रूहपोश होता जा रहा है। शुक्र है हिन्दी फिल्मों के दिलफरेब गानों और डायॅलाग का जिससे उर्दू जब़ान की इन्फरादियत व मकबूलि‍यत बाकी़ है, शुक्र है उन शायरों के खूबसूरत कलाम और उनकी तहरीरों का जिससे उर्दू जबान का मेयार बरकरार है और का़बिले जिक्र हैं वो उर्दू अखब़ारात जो एक तवील अर्से से उर्दू पढने वालों और कौमी खिदमात में उर्दू का रस्मलुखत़ जिंदा रखे हुए है।

तारीख़ का मुसलसल तब्सरा है एक रोजनामा। रोजनामा अपने दौर की नफसियात और सियासत का आईना है। इस फिल्म में ऐसे ही एक रोजनामा सियासत जदीद और इस अखबार से मुन्सलिक मुलाजमीन, ख़ानदानी अफराद और उसके अतराफ उर्दू बोलने वाले लोगों के जरिये उर्दू जबां से मुताल्लिक तासुरात को दिखाने की कोशिश की गई है।

1950 और 1985 के दर्मियान कानपुर से शाया होकर सियासत जदीद वह उर्दू अखबार है जो हर सुबह, मुसलसल, 200 से ज्यादा शहरों और कस्बात में अपने काराईन के पेशे नजर उनको हालाते हाजरा से वाकिफ करता रहा था। 1947 के बाद आजाद हिन्दुस्तान के नए जम्हूरी इंतेजाम में ये अख़बार अक्लि‍यतों के दिलो जहन का एक मुखलिस तर्जुमान था।

सियासत जदीद के बानी, मोहम्मद इसहाक इल्मी (विसाल 1992) दारुल उलूम देवबंद से फारिग आलिम थे और तिब्बिया कालेज, अलीगढ़ से सनदयाफ्ता यूनानी तिब्ब के ग्रेजुएट भी थे। सियायत जदीद के पब्लिशर के इस मुजाहिदाना किरदार से उनको मुस्लिम कौम का ऐतबार और उनकी कयादत का ऐजाज हासिल हुआ।

इस अखबार की मकबूलियत और खुद, अपनी जाती शख्सियत और तमाम जिन्दगी को मौलाना मोहम्मद इसहाक इल्मी ने अक्लि‍यतों और उनके जम्हूरी हुकूक की तहरीक में वक्फ कर दिया। सियासत जदीद आज भी इस लाजवाल जम्हूरियत की तहरीक के रास्ते पर गामजन है।


दायें या बाएं
निर्देशकः बेला नेगी

नब्बे का दशक खतम खतम होते होते सिनेमा के कारोबार में काफी तब्दीलियाँ आयीं. नए बनते मध्यवर्ग को लुभाने के लिए शौपिंग माल और मल्टीप्लेक्सों का जाल बुना जाने लगा. कारोबारियों को इससे जो फायदा हुआ वह तो एक अलग कहानी है लेकिन नए पढ़े लिखे सिनेकारों को भी कुछ करने का मौका मिला. विशाल भारद्वाज, नागेश कुकूनूर, श्रीराम राघवन, अनुराग कश्यप, आशुतोष गौवरीकर, शिमित अमीन, दिबाकर बनर्जी इसी नए व्यापार की उपज हैं. खोसला का घोसला, स्वदेश, भेजा फ्राई, मनोरमा सिक्स फीट अंडर ने बेजान हो चले मुंबई सिनेमा उद्योग में एक नयी जान फूंकी. ऐसे ही समय में पूना के फिल्म इंस्टिट्यूट से फिल्म सम्पादन में प्रशिक्षित एकदम नयी फिल्मकार बेला नेगी ने अपनी पहली फिल्म दायें या बाएं से ढेर सारी उमीदें जगाईं हैं. फिल्म इंस्टिट्यूट से निकलने के बाद बेला ने फिल्म सम्पादन की मशहूर उस्ताद रेनू सलूजा से एडिटिंग के गुर सीखे, फिर हिंदी फीचर फिल्म गाडमदर में बतौर सहायक संपादक काम भी किया.

दायें या बाएं की कहानी फिल्मकार के दिमाग में अखबार में पढ़ी एक खबर से उपजी. खबर यह थी कि असम के गाव में एक आदमी की लाटरी निकलती है फिर उसकी दुनिया में भारी नाटकीय बदलाव आते हैं. बेला ने भी इस खबर को अपने कुमाऊनी परिवेश में ढाला और मुंबई के सिनेमा में एक नई राह बनायी है. लाटरी की दुनिया से हुए उलटफेर की एक कहानी हम कुछ समय पहले एक और फीचर फिल्म मालामाल वीकली में देख चुके हैं. तमाम लटको- झटकों और नामी गिरामी कलाकारों के बावजूद मालामाल वीकली हमें दिमागी तौर पर समृद्ध नही कर पाती जबकि बेला की फिल्म कुछ सोचने पर मजबूर करती है. इससे पहले कि हम दायें या बाएं के अच्छे बुरे पर बात करें हमें फिल्म के कथानक से रूबरू होना जरुरी है.

दायें या बाएं उत्तराखंड के पहाडी समाज की कथा है जिसका नायक रमेश माजीला (दीपक डाबरियाल) मुंबई की भागमभाग वाली दुनिया से ऊबकर वापिस अपने पहाडी परिवेश में सुकून और ईमानदारी का जीवन जीना चाहता है. रमेश के घर में उसकी माँ, बीवी, साली और छोटा बेटा बौजू हैं. घर की छत पर डिश टी वी का एंटिना लग चुका है और इसके जरिये बाजार की दुनिया रमेश के घर में भी प्रवेश कर चुकी है. गाँव में सब कुछ रुका हुआ है, पहाडीपन प्रकृति और जीवन में तेजी से खतम हो रहा है. गाँव का हर लड़का किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद में दिन काट रहा है और रमेश का इस तरह वापिस आना उन्हें गले नहीं उतरता. आदर्शवादी तरीके से रोमानी तबियत का रमेश अपने काम की शुरुआत गाँव के स्कूल में अध्यापन से करता है जहाँ उसके नवाचार को पुराने लोग एक नए पागलपन के बतौर स्वीकार सिर्फ मजाक ही बनाते हैं. गाँव में सिर्फ एक बसंत है जो रमेश को किसी लायक समझता है और उसी की तरह एक दिन वह भी मुंबई में बतौर लेखक अपनी किस्मत चमकाना चाहता है. किसी तरह घिसट रहे समय में एक दिन चमत्कार होता है और बसंत द्वारा टी वी कंपनी को भेजी गयी रमेश की कविता गाँव में एक बड़ी लाल गाड़ी ले आती है और रमेश को गाँव का स्टार बना देती है. लाल गाड़ी रमेश के साथ - साथ पूरे गाँव के लिए लालच और आशा की वाहक बनती है. इसी लाल गाड़ी में बैठकर औरते घास काटने जाना चाहती हैं तो धूर्त नेता मुख्यमंत्री से मिलना चाहता, रमेश का परिवार मैदान में रह रहे अपने रिश्तेदारों पर रौब गांठना चाहता है या फिर एक प्रेमी अपनी प्रेमिका को इसमें ही बिठा कर गाँव से फुर्र होने की कोशिश करता है..

रमेश का लाटरी का निकलना अब किसी सत्य की तरह हर किसी के लिए एक अनिवार्य कर्म बन जाता है जिसकी परिणिति स्कूल की एसेम्बली में एक छात्र को सम्मानित करने से होती है जिसे एक टी वी प्रतियोगिता में प्रेशर कुकर ईनाम में मिला है. एक नएपन के साथ बेला इस लाल गाड़ी को एक पहाडी की चोटी पर अटका देती हैं क्योंकि रमेश को चोटी पर फंसे अपने बछड़े से ज्यादा बचाने कि भूमिका इस गाड़ी में दिखाई नही देती.

फिल्म के आखिरी दृश्य में बछड़े को बचाने के क्रम में लाल गाड़ी का चोटी पर अटक जाना और फिर उसको पहाड़ के जीवन में अमहत्वपूर्ण बना देना ही बेला को बड़ा फिल्मकार बना देता है। फिर हंसी मजाक जैसी हल्की फुल्की लगने वाली फिल्म यकायक एक बड़े जीवन सत्य के पक्ष में खड़ी दिखाई देती. लेकिन क्या यह अंत अचानक किसी फिल्म को हासिल हो सकता है जिसकी कहानी की मुख्य धुरी ही एक चमत्कार हो. यह सब इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि निर्देशिका अपने पहले फ्रेम से ही साबित करती है कि फिल्म पूरी की पूरी यथार्थ की जमीन पर है. अब इसके लिए वह सावधानी के साथ एक- एक बात का ध्यान रखना शुरू करती है. मसलन फिल्म की लोकेशन और वेशभूषा को ही लें. तमाम मुश्किलों को उठाकर फिल्म उत्तराखंड के ही इलाके में फिल्माई जाती है, फिर लोकेशन को तर्कसंगत साबित करने के लिए वही के स्थानीय कलाकारों का चुनाव. पूरी फिल्म में 95 फीसदी से ज्यादा पात्र ठेठ कुमायूं के हैं इसलिए मुंबई की आम फिल्म की तरह संवाद आने पर आप चैंकते नहीं बल्कि पहाडी चेहरों और वहां की बोलीके साथ लोकेशन के तादात्म्य को समझने की कोशिश करते हैं. बेला को जहाँ भी मौका लगा स्थानीय रंगत को इस्तेमाल करने का मौका उन्होंने छोड़ा नहीं. फिल्म की शुरुआत में रमेश को घेरे हुए बैठी गाँव की महिलाओं या गाँव की शादी का दृश्य हमें धीरे से उस जीवन के अंतरतम तक प्रवेश करा देता है. स्थानीयता को पकड़ने के क्रम में ही यह फिल्म इसीलिए हर महीने थोक की दर से बनने वाली स्थानीय फिल्मों से ज्यादा वहां की होती है क्योंकि सिर्फ लोकेशन और स्थानीय कलाकार का होना भी किसी प्रकार की विश्वसनीयता गारंटी नहीं देता है.

सवाल है कि आपके पास उस समाज को समझने की कोई अंतर्दृष्टि है की नहीं. कैमरा भी इसी चिंता के तहत वाइड शाटों का निरंतर इस्तेमाल करता है. फिल्म के सम्पादन की लय भी पहाड़ की के जीवन की गति के अनुरूप ही है. रमेश माजीला की त्रासदी के साथ -साथ फिल्म खूबसूरती के साथ स्थानीय पर्यावरण और पलायन के मुद्दे को भी जोड़ पाती है . इस बुनावट के साथ जब आखिरी दृश्य में रमेश निर्लिप्तता के साथ लाल गाड़ी को चोटी पर अटका हुआ देखता है तो यह अंत हमें किसी अनहोनी जैसा नही बल्कि कथानक के स्वाभाविक अंत जैसा प्रतीत होता है. यह स्वाभाविक प्रतीति ही इस फिल्म की उपलब्धि है जो बेला को बड़े फिल्मकारों की साफ में साथ खड़ा करने में कामयाब होगी और पहली बार उत्तराखंड के पहाड़ को सही तरीके से समझने का माध्यम बनेगी.

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